दो दशक और 250 करोड़ रुपए खर्च करने के बाद निष्कर्ष ये है कि बोफोर्स मामले को यहीं दफन कर दिया जाए. शांतनु गुहा रे इस बहुचर्चित कांड के विभिन्न पड़ावों और इससे जुड़ी तमाम किंवदंतियों को याद कर रहे हैं -
स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम के पश्चिमी छोर से निकलने वाली साफ-सुथरी सड़क के दोनों किनारों पर फैले ग्रामीण अंचल के नयनाभिराम दृश्यों को देखते हुए घंटे भर में आप कार्ल्सकोगा पहुंच जाएंगे. तकरीबन 1500 की आबादी वाला एक बेहद शांत सा कस्बा है कार्ल्सकोगा. दशकों से यहां के निवासी जिस आयुध निर्माण कंपनी में काम करके अपनी आजीविका चलाते आ रहे हैं उसका नाम है एबी बोफोर्स. 1873 में स्थापित हुई इस कंपनी का नाम पास ही में चलने वाली सत्रहवीं सदी की एक हैमरमिल के नाम पर पड़ा जिसे लोग बूफोर्स के नाम से पुकारा करते थे.
25 मार्च, 1986 की रात कार्ल्सकोगा का आसमान आतिशबाजियों की चकाचौंध से गुलजार था, लोग खुशी से पागल हुए जा रहे थे. हमेशा शांत रहने वाले इस कस्बे में मानो दीवाली मनाई जा रही थी. कंपनी में काम करने वाले पुरुष अपनी संगिनियों के साथ सज-संवर कर शैंपेन की बोतलें उड़ेल रहे थे. वो खुशी की रात थी. पैसे और काम की कमी से जूझ रही एबी बोफोर्स को एक नया जीवन जो मिल गया था. दरअसल एक दिन पहले ही उसके हाथ भारतीय सेना को 400 हॉवित्जर तोपें (155 एमएम) आपूर्ति करने का ठेका मिला था जिसकी कुल कीमत थी 1,437 करोड़ रूपए.
एबी बोफोर्स के आंतरिक दस्तावेज बताते हैं कि ‘वो पूरी रात नाचते-गाते और जश्न मनाते रहे. इस उत्सव का आयोजन सत्ताधारी लेबर यूनियन पार्टी ने किया था जिसका समापन पूरे कस्बे ने अलोफ पामे को धन्यवाद ज्ञापित करने वाले एक पत्र पर हस्ताक्षर करके किया. पामे स्वीडन के पूर्व प्रधानमंत्री थे जिन्होंने इस सौदे को अंजाम तक पहुंचाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी लेकिन सौदे पर दस्तखत होने के महीने भर पहले ही उनकी हत्या कर दी गई थी. कस्बेवालों को उस वक्त इस बात का रत्तीभर भी अंदेशा नहीं था कि जिस ऐतिहासिक सौदे को लेकर वो इतनी खुशियां मना रहे हैं वो जल्द ही भारत के इतिहास के सबसे कुख्यात घोटाले में तब्दील होने वाला है. जल्द ही ये आरोप फिजा में तैरने लगे कि सौदे को पक्का करने के लिए 64 करोड़ रुपए की घूस दी गई. ये ऐसा घोटाला था जो अगले दो दशकों तक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सर पर चढ़ कर नाचने वाला था.
आने वाले समय में इस घोटाले ने देश के इतिहास की सबसे मजबूत सरकार की बलि ले ली और कभी ‘मिस्टर क्लीन’ के नाम से पुकारे जाने वाले प्रधानमंत्री- राजीव गांधी - के ऊपर भी इस घोटाले की कालिख के तमाम छींटे पड़े; इस घोटाले ने सियासत के एक नए सितारे - वीपी सिंह - को जन्म दिया जिन्होंने इस मुद्दे पर पूरे देश में अभियान चलाया और अंत में प्रधानमंत्री की कुर्सी तक जा पहुंचे; प्रभावशाली उद्योगपति - हिंदुजा भाइयों - को भी इस घोटाले ने अपनी चपेट में लिया और उन्हें छुटभैए अपराधियों की तरह देश की निचली अदालत के चक्कर काटने पड़े; और घोटाले से कथित तौर पर जुड़े एक अहम खिलाड़ी ने तो इसके चलते ट्रेन से कटकर अपनी जान तक दे दी. मगर एक बिचौलिया - इतालवी व्यापारी ओतावियो क्वात्रोकी- जो इस मामले में वांछित था - नाटकीय रूप से इंटरपोल की गिरफ्त में आने से बच निकला जबकि एक और बोफोर्स एजेंट- विश्वेश्वरनाथ ‘विन’ चड्ढा - सालों तक निर्वासन में रहा और दिल्ली लौटने के कुछ ही दिनों बाद हार्ट अटैक से उसकी मौत हो गई.
इसके अलावा अलोफ पामे की फरवरी 1986 को संदिग्ध हालत में उस समय हत्या हो गई जब वो अपनी पत्नी के साथ स्टाकहोम के एक थियेटर से फिल्म देखकर बाहर निकल रहे थे. बोफोर्स सौदे के महीने भर पहले हुई उनकी हत्या का राज भी आज तक राज ही बना हुआ है. असल में बोफोर्स की कथा की तुलना किसी भी सास-बहू वाले सीरियल से की जा सकती है जिसमें कभी भी कुछ भी हो सकता है मगर कहानी कभी अंत की ओर जाती नहीं दिखती.
बोफोर्स घोटाले ने आम जनमानस के ऊपर इस कदर असर डाला था कि देश भर में गांवो, कस्बों और शहरों की दीवारों पर इससे जुड़े नारे लिखे दिख जाते थे. इस घोटाले ने किस कदर राजीव गांधी की प्रतिष्ठा को चौपट किया था इसका अंदाजा हमें उस समय की एक घटना से मिल जाता है. पटना के आकाशवाणी केंद्र में एक दस वर्षीय बच्चे से कोई कविता पढ़ने के लिए कहा गया तो उसने छूटते ही लाइव कार्यक्रम में कह डाला, ‘गली गली में शोर है, राजीव गांधी चोर है.’ शाम होते-होते बेचारा आकाशवाणी निदेशक अपने घर का प्यारा हो चुका था.
बोफोर्स घोटाले का प्रभाव इतना व्यापक था कि किसी सुपरहिट टेलीविजन सोप की तरह इसमें तमाम छोटे-छोटे उप-विवाद और घोटाले भी जन्म लेते रहे- मसलन राजीव गांधी प्रशासन ने वीपी सिंह के पुत्र को भ्रष्टाचार के फर्जी मामले में फंसाने की कोशिश की, सीबीआई ने बार-बार इस मामले को लटकाने और अदालत को गुमराह करने के प्रयास किए.
ये भी उतना ही बड़ा सच है कि दो दशकों तक देश और विदेश में थका देने वाली कानूनी प्रक्रियाओं के बावजूद इस मामले में एक भी व्यक्ति को दोषी करार नहीं दिया जा सका. मलेशिया से लेकर अर्जेंटीना और ब्रिटेन तक इसका दायरा फैला हुआ था, पनामा से लेकर लिसेंस्टीन और लक्जमबर्ग तक अनगिनत बार कानूनी खतो-किताबत भी हुई जिसका उद्देश्य था घोटाले से जुड़ी रकम कहां-से कहां और कैसे गई, इसकी जांच करना. लेकिन बोफोर्स का जिन्न आज भी बार-बार कांग्रेस पार्टी और विशेषकर पार्टी की अध्यक्षा सोनिया गांधी के के गले की हड्डी बना हुआ है. कुछ दिन पहले सरकार द्वारा क्वात्रोकी के खिलाफ आपराधिक आरोप वापस लेने के फैसले से तत्काल ही उन तमाम लोगों की भृकुटियां तन गईं जिन्होंने इस मामले को रफा-दफा करने की हर सरकारी कोशिश का कदम-कदम पर प्रतिरोध किया था.
‘क्वात्रोकी के खिलाफ मामला वापस लेने का फैसला उस कोशिश का नतीजा है जो लंबे समय से इस मामले को खत्म करने के लिए की जा रही थी. इस कदम के साथ ही बोफोर्स घूस मामले पर पर्दा डालने की कोशिशें पूरी हो गई हैं’ ये कड़ी प्रतिक्रिया सीपीआई (एम) ने 29 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट के सम्मुख दिए सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम के उस बयान के बाद दी जिसमें उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार ने इतालवी व्यापारी के खिलाफ मामला खत्म करने का फैसला किया है.
पूर्व राजदूत बीएम ओझा, जो कि सौदे पर दस्तखत के वक्त स्वीडन में भारतीय राजदूत थे, ने एक समाचार एजेंसी को बताया, ‘अगर क्वात्रोकी को भारत लाया भी जाता तो भी वो नेताओं को दी घूस की जानकारी नहीं देने वाला था क्योंकि वो पहले ही बता चुका है कि राजीव गांधी से उसके बहुत अच्छे पारिवारिक रिश्ते थे. इसलिए ईमानदारी से कहा जाए तो ये रास्ता बंद होना है.’ ओझा की बात सही लगती है.
‘भारत में बोफोर्स मामले में किसी ने कुछ नहीं किया. सारे लोग बस इसे दूर से देखते और एक-दूसरे पर आरोप लगाते रहे.’ सीपीआई नेता डी राजा चुटकी लेते हैं. मुख्य विपक्षी दल भाजपा सारा ठीकरा कांग्रेस के सिर ये कह कर फोड़ रही है है कि कांग्रेस का रवया इस मामले में बेहद ढुलमुल रहा है. ‘हमने क्वात्रोकी के खाते सील किए, उसके खिलाफ इंटरपोल से रेड कॉर्नर नोटिस जारी करवाया लेकिन कांग्रेस की सहायता से वो बच निकला’ ये कहना है भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी का. मजे की बात ये है कि राजीव गांधी के ही एक फैसले ने बोफोर्स मामले को घूस कांड में बदला था. साल 1984 के आखिरी दिनों में लोकसभा चुनावों की सबसे बड़ी जीत दर्ज करके प्रधानमंत्री का पद संभालने वाले राजीव गांधी ने फैसला किया कि अब से सैनिक साजो-सामान की कोई भी खरीदारी सीधे-सीधे सरकार और आपूर्तिकर्ता के बीच होगी, इसमें किसी बिचौलिए की भूमिका नहीं होगी. ये फैसला उस समय तक चली आ रही व्यवस्था के बिल्कुल विपरीत था. उससे पहले तक दलाली एक नियमित और वैध प्रक्रिया थी, बिचौलियों को हथियार सौदों में एक निश्चित रकम मिला करती थी.
इस सौदे पर बारीकी से निगाह रखने वालों के मुताबिक बोफोर्स सौदे पर दस्तखत से काफी पहले ही यानी मार्च 1986 में इसकी घोषणा से पूर्व ही ये समझौता पक्का हो चुका था. घोषणा के दो महीने पहले ही जब अलोफ पामे छह देशों के राष्ट्राध्यक्षों के एक सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए दिल्ली आए हुए थे तो उस दौरान उनकी राजीव गांधी से एक गोपनीय मुलाकात हुई थी. दिल्ली के मौर्या शेरेटन होटल में हुई इस मुलाकात में पामे ने राजीव गांधी को दलील दी कि अगर ये हथियार समझौता नहीं हुआ तो उनकी लेबर यूनियन पार्टी को आगामी चुनावों में हार का मुंह तक देखना पड़ सकता है. गांधी, जो कि पामे को अपना करीबी दोस्त मानते थे, सौदा एबी बोफोर्स को देने पर राजी हो गए. इस तरह बैठक खत्म करके पामे खुशी-खुशी एयरपोर्ट रवाना हो गए. अतिउत्साह में वो अपना एयरकोट तक लेना भूल गए थे जिसके लिए विदेश मंत्रालय के दो अधिकारियों को तुरंत ही एयरपोर्ट दौड़ाया गया था.
लेकिन समझौते के साल भर बाद ही इसकी परतें उघड़ने लगीं. स्वीडिश रेडियो के दो संवाददाताओं ने 16 अप्रैल 1987 की सुबह ये दावा किया कि बोफोर्स ने सौदा हासिल करने के लिए शीर्ष भारतीय राजनीतिज्ञों और रक्षा अधिकारियों को घूस दी है. भारतीय सरकार ने बिना समय गंवाए इस विस्फोटक खबर को ‘झूठी, आधारहीन और शरारतपूर्ण करार दिया’. इसके बावजूद खतरे की घंटी बज चुकी थी और प्रधानमंत्री और शीर्ष अधिकारियों के बीच बैठकों की मानो बाढ़ सी आ गई.
खबर उजागर होने के चार दिन बाद 20 अप्रैल 1987 को राजीव गांधी ने लोकसभा को बताया कि सौदे में कोई बिचौलिया या लेन-देन शामिल नहीं है. लेकिन तनाव कम नहीं हुआ क्योंकि विपक्ष इस मामले में अपनी कमर कस चुका था. मजबूरन सरकार को अगस्त 1987 में मामले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की घोषणा करनी पड़ी.
बी शंकरानंद (तत्कालीन राजीव सरकार में मंत्री) की अगुवाई वाली इस जेपीसी ने जुलाई 1989 में अपनी रपट संसद के सामने रखी जिसमें उसने राजीव सरकार को क्लीनचिट दे दी थी. इसके विरोध में विपक्ष ने संसद से ‘वॉकआउट’ किया और इसके खिलाफ अभियान छेड़ दिया. द हिंदू और इंडियन एक्सप्रेस इन दो अखबारों ने भी अपनी खोजी रपटों के माध्यम से इतना कुछ जनता के सामने रख दिया कि इस आधार पर मामले में आपराधिक मामला दर्ज किया जा सकता था. नुकसान हो चुका था, कांग्रेस पार्टी को 1989 के आम चुनावों में 200 से भी कम सीटें मिलीं.
दो दशक बाद बोफोर्स मामले में सीबीआई की जांच भारत की अब तक की सबसे महंगी जांच है जिसमें करदाताओं की गाढ़ी कमाई का करीब 250 करोड़ रुपया खर्च या यूं कहें कि बर्बाद किया जा चुका है. ‘भारत में किसी और मामले की जांच में इतना वक्त नहीं लगा और किसी मामले में इतने सारे पेंच भी नहीं थे.’ मामले की जांच से जुड़े रहे सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह का एक बार कुछ निजी से माहौल में कहना था, ‘इसे दफन करने के लिए ढेर सारा समय और पैसा खर्च किया गया.’
बहरहाल इस मामले में शामिल सभी आरोपी या तो बरी हो गए जैसे कि हिंदुजा बंधु या फिर दुनिया से ही रुखसत हो गए मसलन राजीव गांधी, विन चड्ढा और पूर्व रक्षा सचिव एसके भटनागर. इनमें से राजीव गांधी को दिल्ली हाईकोर्ट ने मरणोपरांत निर्दोष करार दिया. फिलहाल इस मामले का एकमात्र जीवित आरोपी है 70 वर्षीय ओतावियो क्वात्रोकी जो कि 1985 में इतालवी कंपनी स्नैमप्रोगेटी का भारत में प्रतिनिधि था. उसके खिलाफ आरोप है कि उसने राजीव गांधी के मोहरे के रूप में 64 करोड़ रूपए की घूस हासिल की.
‘इसकी वजह ये है कि सरकार में कोई भी मामले को हल करने के लिए इच्छुक नहीं जान पड़ता है,’ सरकार के ताजे रुख पर सुप्रीम कोर्ट के वकील अजय अग्रवाल कहते हैं. जनवरी 2006 को अग्रवाल ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके मांग की थी कि क्वात्रोकी के बैंक अकाउंट को सील करने के लिए सरकार विदेशी कोर्ट का सहारा ले. सुप्रीम कोर्ट ने ने याचिका को स्वीकार करते हुए सरकार को ऐसा करने का निर्देश दिया. अग्रवाल ने अब नई दिल्ली के मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट कावेरी बवेजा के समक्ष एक याचिका दायर करके सीबीआई के ताजा कदम का विरोध किया है. उनका कहना है कि सीबीआई को न्यायपालिका के साथ खेल खेलने की छूट नहीं दी जा सकती है.
विडंबना ये रही कि वीपी सिंह जिन्होंने बोफोर्स घोटाले पर देश के मानस को राजीव गांधी के खिलाफ खड़ा किया और 1988 में इलाहाबाद के उपचुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज की वो अपने 11 महीने के प्रधानमंत्रित्वकाल में इस घोटाले की जांच की गति में तेजी लाने में असफल रहे. जैसे ही राजीव गांधी के समर्थन से वीपी सिंह की जनमोर्चा सरकार से अलग हुए चंद्रशेखर ने सरकार बनाई इस मामले की जांच पूरी तरह से ठप पड़ गई.
1991 के आम चुनावों के मध्य में ही राजीव गांधी की हत्या हो जाने के बाद पीवी नरसिंहा राव प्रधानमंत्री बने. उस दौरान राजनीति के गलियारों में ये एक आम धारणा थी कि राजनीति के चतुर खिलाड़ी राव बोफोर्स जांच का इस्तेमाल सोनिया गांधी को काबू में रखने के लिए कर रहे हैं. 1996 में राव के चुनाव हार जाने के बाद अल्पकाल के लिए बने दो प्रधानमंत्रियों (एचडी देवेगौड़ा और आईके गुजराल) के समय में कुछ भी उम्मीद रखना बेमानी था क्योंकि दोनों ही कांग्रेस की बैसाखी पर टिके हुए थे.
लेकिन विशेषज्ञों को चकराने वाली चीज रही भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए सरकार के दौरान बोफोर्स मामले की जांच में कोई ठोस प्रगति न हो पाना. हालांकि 1998 से 2004 के बीच अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के काल में ही इस मामले में पहला आरोपपत्र निचली अदालत में दाखिल किया गया. इसके बाद सीबीआई ने आरोपियों की सूची में राजीव गांधी का नाम भी इसी दौरान जोड़ा और हिंदुजा भाइयों का नाम भी शामिल किया गया जिन्होंने बोफोर्स को सौदा दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी. पर इसी एनडीए के कार्यकाल में इस मामले में सीबीआई को अदालतों में सबसे बड़े झटके भी लगे थे. इस दौरान दिल्ली उच्च न्यायालय ने राजीव गांधी और हिंदुजा भाइयों के खिलाफ आरोपों को निरस्त कर दिया और उन्हें रिहा करने का आदेश भी दिया. कोर्ट के मुताबिक सीबीआई उन ब्रिटिश उद्योगपतियों के खिलाफ न सिर्फ अपनी जांच ठीक से नहीं कर रही थी बल्कि उन्हें निशाना बनाने में सरकारी धन का दुरुपयोग भी कर रही थी. इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात रही सीबीआई का प्रमाणित किये गए उन दस्तावेजों को अदालत में पेश न कर पाना जो स्विटजरलैंड से मामले को पुख्ता करने के लिए मंगाए गए थे. इसने आरोपियों को बरी कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
इसका एक दूसरा पहलू भी है. दो दशक की उबाऊ जांच के बाद भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठानों में इस मामले के बंद होने को लेकर एक तरह की संतुष्टि का भाव भी देखने को मिल रहा है. उनके मुताबिक ये खबर प्रस्तावित 30 अरब डॉलर के रक्षा सौदों के लिहाज से बहुत अच्छी है. ये देखना और भी दिलचस्प है कि बोफोर्स मामला मुकदमेबाजी के एक नए दौर में प्रवेश कर चुका है और साथ ही इसने कई नए सवालों को भी जन्म दिया है मसलन सीबीआई को या किसी भी जांच एजेंसी को आरोप वापस लेने या कोर्ट को मामला बंद करने की सलाह देने का अधिकार है या फिर क्या ट्रायल कोर्ट इसमें कुछ कर सकता है.
नियमों के तहत तो ट्रायल कोर्ट आरोपपत्र रद्द करने की सीबीआई याचिका से बंधा नहीं है. इसकी बजाय अदालत सीबीआई को निर्देश दे सकती है कि जिस आधार पर वो मामला वापस लेना चाहती है उस पर एक बार फिर से गंभीरतापूर्वक विचार करे और अदालत को सलाह दे कि क्वात्रोकी के प्रत्यर्पण के लिए और क्या-कुछ किया जा सकता है.
कानून मंत्री एम वीरप्पा मोइली पहले ही कह चुके हैं कि बोफोर्स मामला भ्रष्टाचार निरोधक कानून के दायरे में नहीं आता है और न ही क्वात्रोकी समेत इसमें शामिल किसी भी आरोपी के खिलाफ इसके तहत कार्रवाई हो सकती है. पार्टी के नेता इस आधार पर भी मामले को हमेशा-हमेशा के लिए दफन होते देखना चाहते हैं कि ये महज 64 करोड़ रुपए की मामूली घूस का मामला ही तो है.
एक बात तो साफ है कि अगर सीबीआई चाहती तो इस मामले से किसी-न-किसी तरह से जुड़े रहे लोगों की एक लंबी-चौड़ी सूची थी, जो मामले की जांच और अपराधियों को सजा दिलाने में सकारात्मक भूमिका निभा सकते थे. रक्षा मंत्रालय में तत्कालीन संयुक्त सचिव एसके अग्निहोत्री ने सार्वजनिक तौर पर इस सौदे का विरोध किया था. उस वक्त 155 एमएम की तोप की कीमत निर्धारण के लिए बनी समिति के सदस्य रहे अग्निहोत्री का कहना था कि एबी बोफोर्स हमारे गुणवत्ता मानकों को पूरा नहीं करती है. बोफोर्स के हाथ में सौदा जाने सेतीन महीने पहले ही अग्निहोत्री का तबादला कपड़ा मंत्रालय में कर दिया गया. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक बोफोर्स कांड कांग्रेस के लिए उसी तरह का निर्णायक मोड़ था जैसा कि 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस भाजपा के लिए. ‘बोफोर्स ऐसा मुद्दा रहा है जिसने भारतीय राजनीति पर हमेशा अपनी छाया डाली. इसका भूत आज भी भारत की सुरक्षा तैयारियों को सवाल के घेरे में खड़ा करता है’ पूर्व पत्रकार दिलिप चेरियन कहते हैं. पर सवाल ये है कि आखिर इस घोटाले का इतना दीर्घकालिक प्रभाव क्यों पड़ा? उस पीढ़ी के तमाम लोगों की नजर में इस घोटाले ने कांग्रेस पार्टी पर भ्रष्ट संगठन का ठप्पा लगाया जो देश के स्वतंत्रता आंदोलन की अगुवाई वाली अपनी प्रतिष्ठा पहले ही गंवा चुकी थी.
हालांकि इस मामले में अभी तक कुछ भी साबित नहीं हो सका है लेकिन इसका कीचड़ बीते दो दशकों से कांग्रेस के दामन से चिपका हुआ है. बहुतों की निगाह में इसकी वजह ये है कि राजीव गांधी सरकार बार-बार वायदे करने के बावजूद कभी भी सच्चाई को उजागर करने के प्रति गंभीर नहीं रही. जबकि दूसरों का मानना है कि सीबीआई क्वात्रोकी के खिलाफ सबूतों के बावजूद कार्रवाई के प्रति अनिच्छुक रही. उसके खिलाफ अधिकतर सबूत बोफोर्स के अध्यक्ष मार्टिन आर्डबो की गोपनीय डायरी से हासिल हुए थे जिसमें ‘क्यू’, ‘नीरो’ और ‘गांधी का विश्वस्त वकील’ जैसे शब्दों का बार-बार जिक्र हुआ था. माना जाता है कि क्यू क्वात्रोकी के लिए और नीरो अरुण नेहरू के लिए इस्तेमाल हुआ था जो कि उस वक्त कैबिनेट में एक ताकतवर मंत्री थे.
1989 के आम चुनावों के प्रचार के दौरान वीपी सिंह हर सभा में अपनी जेब से एक छोटा सा कैलकुलेटर निकालते थे और मौजूद भीड़ से कहते थे कि इस छोटी सी मशीन में स्विस बैंको के खाता नंबर हैं जिनमें बोफोर्स घूस की रकम जमा है. और अगर उन्हें सत्ता हासिल हुई तो वो उन खातों को खोलने में सफल हो जाएंगे. हालांकि ये अलग बात है कि उन्होंने ऐसा कुछ किया नहीं. जॉर्ज फर्नांडिज भी उस वक्त इसी तरह के दावे किया करते थे जो बाद में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार में रक्षामंत्री भी बने. कोलकाता के अखबार टेलीग्राफ को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जल सिंह को एक स्विस बैंक के खाते की पूरी जानकारी दी है जिससे बोफोर्स घोटाले से जुड़ी सभी जानकारियां मिल सकती थी. आज दो दशक बाद भी किसी स्विस खाते को सामने नहीं लाया जा सका है.
जिस वक्त बोफोर्स घोटाला उजागर हुआ था उस वक्त प्रतिष्ठित कानूनविद राम जेठमलानी ने भ्रष्टाचार के मामलों की जांच में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उस दौरान उनका हर दिन राजीव गांधी से दस सवाल पूछने का तरीका बहुत मशहूर हुआ था. लेकिन वाजपेयी की सरकार बनने के बाद कुछ समय के लिए कानून मंत्री रहे राम जेठमलानी के समय में भी बोफोर्स मामले की जांच घिसट-घिसट कर ही चलती रही. एक चौंकाने वाली बात ये रही कि 2003 में जेठमलानी ने अचानक ही हिंदुजा भाइयों की पैरवी करने की घोषणा कर दी और वे उन्हें कानून के चंगुल से मुक्ति दिलाने में भी सफल रहे.
इस मामले में उल्लेखनीय भूमिका निभाने वालों में एक और नाम रहा अरुण जेटली का, लेकिन एक भाजपा नेता के रूप में नहीं बल्कि एक युवा वकील के रूप में. 1990 में वीपी सिंह द्वारा उन्हें एडिशनल सॉलिसिटर जनरल नियुक्त करने के बाद उन्होंने बेहद आक्रामक ढंग से इस मामले को आगे बढ़ाया. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से वाजपेयी सरकार में कानून मंत्री रहते हुए वो कभी भी उस गति को हासिल नहीं कर पाए जैसी 1990 में दिखी थी. बावजूद इसके इसी साल अप्रैल में उन्होंने दावा किया कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वो बोफोर्स मामले में सीबीआई की असफलताओं की जांच के लिए आयोग गठित करेंगे.
ये बयान उस वक्त आया जब सीबीआई ने क्वात्रोकी को अपनी वांछितों की सूची से बाहर निकाल दिया था और इंटरपोल ने उसके खिलाफ जारी हुआ 12 साल पुराना रेड कॉर्नर नोटिस भी वापस ले लिया था. संक्षेप में कहें तो राजनीतिक दांवपेंच में फंस कर ये मामला सालों तक लटकता रहा. सरकार के इरादों पर संदेह करने की कई वजहे हैं मसलन उसने क्वात्रोकी के लंदन स्थित बैंक खातों को फिर से खोलने की छूट दे दी, पहले मलेशिया और फिर अर्जेंटीना से उसका प्रत्यर्पण करवाने में नाकाम रही, जहां उसे इंटरपोल के नोटिस के आधार पर गिरफ्तार किया गया था और अब उसने क्वात्रोकी के खिलाफ सारे आरोप वापस लेने का निर्णय कर लिया.
सवाल उठता है कि वाजपेयी सरकार ने इस मामले की सच्चाई सामने लाने की क्या कोशिशें की? वाजपेयी की मलेशियाई प्रधानमंत्री के साथ एक मुलाकात से जुड़ी बेहद दिलचस्प कहानी राजनीतिक हल्कों में सुनी-सुनाई जाती है. उस वक्त क्वात्रोकी कुआलालंपुर में रहता था और उसने मलेशिया की सुप्रीम कोर्ट में अपने प्रत्यर्पण के खिलाफ अर्जी लगा रखी थी. जब मोहम्मद ने वाजपेयी से क्वात्रोकी के प्रत्यर्पण के संबंध में भारत की गंभीरता के बारे में पूछा तो बैठक में मौजूद एक अधिकारी के मुताबिक प्रधानमंत्री खिड़की से बाहर देखते रहे थे.
ऐसा ही एक नाटक पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर के फार्महाउस पर उस दिन सुबह देखने को मिला जब वो प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे चुके थे. गुस्साए चंद्रशेखर अपने फार्महाउस के देहाती माहौल में बैठे हुए थे, घोटाले में फंसे एक व्यापारिक घराने के कुछ सदस्य घंटों से उनके पैर दबाए जा रहे थे. उस वक्त वहां मौजूद एक व्यक्ति के मुताबिक- ‘वो नहीं चाहते थे कि नेताजी (चंद्रशेखर) बोफोर्स की फाइलों में उनके खिलाफ कुछ लिखें.’
एक पल के लिए ऐसा लग सकता है कि क्वात्रोकी के खिलाफ आरोप वापस लेने के फैसले के बाद बोफोर्स मामला खत्म हो चुका है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट को सीबीआई की याचिका पर निर्णय देना अभी बाकी है और तब तक सोनिया गांधी के इतालवी मित्र ठीक से राहत की सांस नहीं ले सकते. हैरत की बात ये है कि कांग्रेस की धुर विरोधी राजनीतिक पार्टियां जिनमें भाजपा भी शामिल है, सीबीआई के फैसले पर ज्यादा कुछ नहीं बोल रहीं हैं. ढेरों संदिग्ध चरित्रों, आपराधिक मामलों और ऑफ द रिकॉर्ड कहानियों की घालमेल के बीच देश के सबसे बड़े मामलों में से एक की गुत्थी अभी उलझी ही पड़ी है.
[साभार- तहलका हिंदी]
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