शनिवार, 29 जनवरी 2011

क्‍या है जेपीसी?

2 स्‍पेक्‍ट्रम आवंटन घोटाले को लेकर सरकार और विपक्ष के बीच तीखी बहस हो रही है. विपक्ष इस घोटाले की जांच जेपीसी से कराना चाहता है तो सरकार कह रही है कि इस घोटाले की पीएसी करने में सक्षम है. तो जानते हैं आखिर क्‍या है जेपीसी?
जेपीसी अंग्रेजी अक्षर के JPC से बना है, जिसका पूरा मतलब होता है. ज्‍वाइंट पार्लियामेंटरी कमेटी. ज्‍वाइंट पार्लियामेंटरी कमेटी संसद की वह समिति जिसमें सभी दलों को समान भागीदारी हो. जेपीसी को यह अधिकार है कि वह किसी भी व्‍यक्ति, संस्‍था या किसी भी उस पक्ष को बुला सकती है जिसको ले‍कर जेपीसी का गठन हुआ है.
अगर वह जेपीसी के समक्ष पेश नहीं होता है तो यह संसद की अवमानना का उल्‍लघंन माना जाएगा. जेपीसी संबंधित व्‍यक्ति या संस्‍था से इस बाबत लिखित या मौखिक जवाब या फिर दोनों मांग सकती है.
भारतीय संसद के इतिहास में अब तक 4 बार जेपीसी का गठन हो चुका है.
6 अगस्‍त 1987 को पहली बार बोफोर्स घोटाले को लेकर पहली बार जेपीसी का गठन हुआ.
6 अगस्‍त 1992 को दूसरी बार तब जेपीसी का गठन हुआ जब हर्षद मेहता का शेयर घोटाले की जांच करनी थी.
26 अप्रैल, 2001 को एक बार फिर शेयर बाजार में हुए घोटाले के कारण जेपीसी का गठन हुआ.
अगस्‍त 2003 में चौथी और अंतिम जेपीसी का गठन भारत में बनने वाले सॉफ्ट ड्रिंक्‍स और अन्‍य पेय पदार्थों में कीनटाशक होने की जांच के लिए किया गया था.
2 स्‍पेक्‍ट्रम आवंटन घोटाले को लेकर सरकार और विपक्ष के बीच तीखी बहस हो रही है. विपक्ष इस घोटाले की जांच जेपीसी से कराना चाहता है तो सरकार कह रही है कि इस घोटाले की पीएसी करने में सक्षम है. तो जानते हैं आखिर क्‍या है जेपीसी?जेपीसी अंग्रेजी अक्षर के JPC से बना है, जिसका पूरा मतलब होता है. ज्‍वाइंट पार्लियामेंटरी कमेटी. ज्‍वाइंट पार्लियामेंटरी कमेटी संसद की वह समिति जिसमें सभी दलों को समान भागीदारी हो. जेपीसी को यह अधिकार है कि वह किसी भी व्‍यक्ति, संस्‍था या किसी भी उस पक्ष को बुला सकती है जिसको ले‍कर जेपीसी का गठन हुआ है.
अगर वह जेपीसी के समक्ष पेश नहीं होता है तो यह संसद की अवमानना का उल्‍लघंन माना जाएगा. जेपीसी संबंधित व्‍यक्ति या संस्‍था से इस बाबत लिखित या मौखिक जवाब या फिर दोनों मांग सकती है.
भारतीय संसद के इतिहास में अब तक 4 बार जेपीसी का गठन हो चुका है.
6 अगस्‍त 1987 को पहली बार बोफोर्स घोटाले को लेकर पहली बार जेपीसी का गठन हुआ.
6 अगस्‍त 1992 को दूसरी बार तब जेपीसी का गठन हुआ जब हर्षद मेहता का शेयर घोटाले की जांच करनी थी.
26 अप्रैल, 2001 को एक बार फिर शेयर बाजार में हुए घोटाले के कारण जेपीसी का गठन हुआ.
अगस्‍त 2003 में चौथी और अंतिम जेपीसी का गठन भारत में बनने वाले सॉफ्ट ड्रिंक्‍स और अन्‍य पेय पदार्थों में कीनटाशक होने की जांच के लिए किया गया था

7 महाघोटाले पिछले दो दशक के

पिछले दो महिनों के भीतर देश में एक के बाद एक कई घोटालों से पर्दा उठा है और इससे केन्द्र सरकार को शर्मिंदा होना पड रहा है. भारत भ्रष्टाचार के मामले में अन्य देशों से काफी आगे है और यह देश के विकास को बाधित करने वाली एक सबसे बडी समस्या भी है. पिछले दो दशकों के दौरान कई बडे घोटाले सामने आए हैं. इनमें से प्रमुख 7 घोटाले ये थे -

2जी स्पैक्ट्रम घोटाला

संचार मंत्री अन्दीमुथु राजा ने बाजार भाव की परवाह किए बिना सात साल पहले के भावों से 2जी स्पैक्ट्रम का आवंटन कर दिया. सरकार को इससे 39 अरब का नुकसान हुआ. इस घोटाले के पर लम्बे समय तक पर्दा डालने का प्रयास किया गया. परंतु आखिर में भारी दबाव के चलते संचार मंत्री ए. राजा से त्यागपत्र मांगा गया. परंतु सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी कठघरे में खडा करते हुए पूछा कि उन्होनें जाँच कराने में देरी क्यों की?

हाउसिंग लोन घोटाला -

एक वर्ष की जाँच के बाद सीबीआई ने एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस के प्रमुख सहित आठ लोगों को गिरफ्तार किया. इनके ऊपर कोर्पोरेट लोन के लिए रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया. जिन लोगों की गिरफ्तारी हुई उनमें सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, पंजाब नेशनल बैंक और बैंक ऑफ इंडिया के शीर्ष पदाधिकारी भी थे. यह घोटाला कितना बडा है इसका अंदाजा नहीं लग पाया है परंतु अनुमान है कि यह यह कई हजार करोड तक जाएगा.
कॉमनेवैल्थ खेल घोटाला

दिल्ली कॉमनेवैल्थ खेल 2010 शांतिपूर्वक सम्पन्न तो हो गया परंतु घोटालों की काली छाई इस पर भी मंडराती रही. निर्माण कार्यों में अवांछित देरी और अनाप शनाप खर्चों ने भारतीय ऑलम्पिक संघ, दिल्ली सरकार, दिल्ली विकास प्राधिकरण और दिल्ली नगर निगम सहित केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय को भी कठघरे में खडा किया. कभी 2000 करोड के बजट वाले इस खेल आयोजन के पीछे 60000 करोड से अधिक खर्च कर दिए गए. अब सीबीआई इस घोटाले की जाँच कर रही है.
आदर्श सोसाइटी घोटाला -

कारगिल के शहीदों के परिवारवालों के लिए बनी इस सोसाइटी पर कांग्रेस पार्टी के नेताओं, बाबुओं और सेना के ऊपरी अधिकारियों ने कब्जा कर लिया. स्वयं मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण इस घोटाले में फंस गए और उन्हें इस्तीफा देना पडा. यह सोसाइटी मुम्बई के एक सबसे महंगे इलाके में बनी है. यह इमारत कई अन्य विवादों में भी फंसी है. आरोप है कि बिल्डर ने पर्यावरण संबंधित तथा जमीन संबंधित कानूनों पर ध्यान नहीं दिया.
सत्यम घोटाला -

एक दिन सत्यम कम्प्यूटर्स के संस्थापक रामलिंग राजू ने एक चिट्ठी लिखी और भूचाल आ गया. उन्होनें लिखा कि किस तरह से वर्षों तक कम्पनी ने लाभ अर्जित करने के झूठे आँकडे दिखाए. 1 बिलियन के लगभग इस घोटाले को भारत का एनरोन भी कहा जाता है.
हर्षद मेहता घोटाला-

1992 में बोम्बे स्टोक एक्ष्सेंज में तूफान सा आ गया था. संसेक्स तेजी से ऊपर चढ रहा था. परंतु पर्दे के पीछे का खेल कुछ और ही था. कई भारतीय शेयर दलालों ने इंटर बैंक ट्रांसेक्शन के साथ बाजार को उफान पर लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इसमें कई देशी और विदेशी बैंकें, बाबु और नेता भी शामिल थे. जब इस घोटाले से पर्दा उठा तो दो महिने के भीतर बाजार 40% तक गिर गया और लोगों के लाखों-करोडों रूप डूब गए. मुख्य अभियुक्त हर्षद मेहता का 2002 में निधन हो गया.
बोफोर्स तोप घोटाला-

भारत ने जब स्वीडन से बोफोर्स तोप खरीदी तब आरोप लगा कि इस तोप को खरीदने के लिए दबाव बनाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नजदीकी लोगों को रिश्वत दी गई थी. इस घोटाले की वजह से कांग्रेस का विभाजन हुआ और 1989 के आम चुनावों में पार्टी की हार हुई. यह केस वर्षों से चल रहा है और शायद वास्तविकता कभी सामने ना आ पाए.

घोटालों का कारोबार

कुछ दिन पहले 26 वर्षीय एक युवक की दिल्ली में जहर खाने के कारण मृत्यु हो गई। उसने एक नई अनजान-सी कम्पनी के ज्यादा ब्याज और राशि वापसी के कई विकल्पों के झांसे में आकर अच्छी-खासी पंूजी उसमें निवेश कर दी थी। जब उसे अन्य निवेशकों के साथ पता लगा कि कम्पनी रकम हजम कर गायब हो गई है, तो वह इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सका तथा आत्महत्या कर ली। विभिन्न तौर-तरीके अपनाकर किए जा रहे घोटाले भारत में ही नहीं, विश्व भर में बढ़ रहे हैं। आस्ट्रेलिया में तो पुलिस विभाग समय-समय पर इस बारे में चेतावनी जारी करता रहता है।

ब्रिटेन और जापान में नागरिकों को ऎसे धोखेबाजों और उनके नए-नए तौर-तरीकों के बारे में चेताया जाता रहता है। सिंगापुर विश्व का सबसे सुरक्षित शहर माना जाता है। वहां की पुलिस भी बहुत सक्षम और प्रभावी मानी जाती है इसके बावजूद वहां वर्ष 2007 की तुलना में 2008 में धोखाधड़ी की घटनाएं 15 प्रतिशत बढ़ गई। एक अनुमान के अनुसार ब्रिटेन में प्रति वर्ष लगभग 33 लाख लोग धोखाधड़ी का शिकार होकर साढ़े तीन अरब पाउण्ड से हाथ धो बैठते हैं। विश्व अर्थव्यवस्था में जब से मंदी का दौर आया है, धोखाधड़ी और घोटालों की वारदातें बहुत बढ़ गई हैं। रोजगार छिनने के बाद लोग ऎसी वारदातों में लिप्त हो जाते हैं। इंटरनेट के उपयोग की व्यापकता और विश्वव्यापी स्वीकार्यता के कारण एक नई तरह के अपराधियों की जमात बढ़ रही है। आए दिन लोगों के मोबाइल और ई-मेल पर यह संदेश/सूचना आती है कि आपको लॉटरी में एक बड़ी राशि का इनाम मिला है, जो दुनिया भर के नाम और टेलीफोन नम्बरों में से चयनित हुआ है। मुझे मिले एसएमएस में तीन लाख अमरीकी डालर का पुरस्कार मिलने के लिए बधाई देते हुए भेजने वाले के मोबाइल या ई-मेल पर सम्पर्क करने के लिए कहा गया, ताकि पुरस्कार की राशि भेजी जा सके। यदि संदेश पाने वाला सम्पर्क करता है तो उससे बैंक खाता संख्या और अन्य व्यक्तिगत जानकारियां मांगी जाती हैं। इस तरह के छलावों में अक्सर व्यक्ति आ जाता है। इसके बाद उससे एक निश्चित राशि स्थानीय कर के नाम पर या किसी अन्य बहाने से मंगवा ली जाती है।

सत्यम्, एनरॉन और मेडौफ जैसे बड़े घोटाले तो सुर्खियों में छाए रहे, क्योंकि ये मामले अरबों-खरबों रूपए के थे, लेकिन ठगी और धोखाधड़ी के शिकार ज्यादातर लोग छोटे-मोटे ठगों, जालसाजों और धोखाधड़ी करने वालों के चंगुल में फंसते हैं। ऎसे ज्यादातर लोगों के पास मामूली सी बचत और सम्पत्ति होती है। भारत में धोखाधड़ी का सबसे प्रचलित तरीका फल, सब्जी और किराने के सामान को तोलने में हेराफेरी करना है। दालों, खाने के तेल, मसालों, दूध, घी, मावा आदि में मिलावट बहुत बड़ी समस्या बन गया है, जिसका आम तौर पर पता भी नहीं लग पाता। इसका कारण भ्रष्ट अधिकारी और मिलीभगत के कारण समय-समय पर खाद्य वस्तुओं के नमूने लेकर जांच नहीं करवाना है। अस्सी अरब रूपए के हाल के सत्यम घोटाले से पहले हर्षद मेहता ने कुछ और शेयर दलालों के साथ मिलकर अरबों रूपए का शेयर घोटाला किया था। हर्षद मेहता ने अप्रेल 1991 से मई 1992 के दौरान अल्प समय में चालबाजी और तिकड़मों से शेयर बाजार में कृत्रिम तेजी पैदा कर सूचकांक को दुगना-तिगुना कर उसे नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया, लेकिन यह तेजी ज्यादा नहीं टिक पाई। स्टाम्प बेचने वाले अब्दुल करीम तेलगी ने सिक्योरिटी प्रेस की पुरानी छपाई मशीनें खरीद कर जाली स्टाम्प पेपर छापना शुरू कर दिया। वर्ष जब वह गिरफ्तार हुआ तब तक वह अठारह शहरों में अपना जाल बिछा चुका था। अटकलें थीं कि उसने दो से तीन खरब रूपए का घोटाला किया, लेकिन सीबीआई के अनुसार तेलगी ने एक अरब 33 करोड़ 33 लाख का घोटाला किया था।

इन सभी घोटालों में एक बात समान थी, वह थी धनलिप्सा। सभी मामलों में धोखाधड़ी इसी कारण हुई। जिनके हाथ में पैसा था, वे और पैसा चाहते थे। सत्यम के रामलिंगा राजू इसके ताजा उदाहरण हैं। जिनके पास पैसा नहीं है, वे येन-केन-प्रकारेण कोई भी तरीका अपनाकर पैसा हासिल करना चाहते हैं। जल्दी अमीर होने की इच्छा की मानवीय कमजोरी का अपराधी पूरा फायदा उठाते हैं। ठग बातचीत कर लोगों को लुभाते हैं और उनके सम्भावित प्रश्नों का उत्तर पहले ही सोच कर तैयार रखते हैं। वे अपने सहयोगियों को पहले भेजकर आधार तैयार करते हैं और बाद में खुद जाकर शिकार करते हैं। सभी घोटालों में एक बात और समान रही है, वह है भ्रष्ट अधिकारियों को फुसलाने की। तेलगी ने सिक्योरिटी प्रेस के अधिकारियों को छपाई मशीन नष्ट नहीं करने के लिए रिश्वत दी और उनसे कहा कि वह नियमों के अनुरूप मशीन को अनुपयोगी बना दें। हर्षद और राकेश मेहता ने घोटाले करने के लिए अधिकारियों को घूस दी। रामलिंगा राजू ने कई महत्वपूर्ण राजनीतिज्ञों और अफसरशाहों से नजदीकियां बढ़ाई। निवेशकों को आसान कमाई और ज्यादा मुनाफे के झांसों पर भरोसा नहीं करना चाहिए। निवेश के बहुत से ऎसे विकल्प हैं, जिनमें रिटर्न भले ही अधिक नहीं मिले, लेकिन पूंजी सुरक्षित रहती है। बाद में पछताने से सुरक्षित रास्ता अपनाना हमेशा बेहतर होता है।

अरूण भगत
[लेखक गुप्तचर ब्यूरो के निदेशक रहे हैं]

शेयर घोटाला: हर्षद मेहता

भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सन् 1990 से 92 का वक्त बड़े बदलाव का वक्त था. देश ने उदारवादी अर्थव्यवस्था की राह पर चलना शुरू ही किया था. इसी दौर में एक ऐसा घोटाला हुआ जिसने भारत में शेयरों की खरीद-फरोख्त की प्रक्रिया में आमूलचूल परिवर्तन कर दिए. 1990 की शुरुआत से ही शेयर बाजार में तेजी का रुख था. इस तेजी के लिए जिम्मेदार शेयर ब्रोकर हर्षद मेहता, कारोबारी मीडिया में ‘बिग बुल’ का दर्जा पाकर शेयर बाजार को अपनी अंगुलियों पर नचाने वाला व्यक्ति बन चुका था. वह शेयर बाजार में लगातार निवेश करता जा रहा था और इसके चलते बाजार में तेजी बनी हुई थी. लेकिन किसी को भी ये अंदाजा नहीं था कि आखिर मेहता को बाजार में निवेश के लिए इतना पैसा कहां से मिल रहा है.
23 अप्रैल 1992 को टाइम्स ऑफ इंडिया में पत्रकार सुचेता दलाल का एक लेख छपा. इसमें बताया गया था कि किस तरह मेहता बैंकिग के एक नियम का फायदा उठाकर बैंकों को बिना बताए उनके करोड़ों रुपए शेयर बाजार में लगाकर अकूत पैसा कमा रहा था. ये बात सामने आते ही शेयर बाजार तेजी से नीचे गिरा और निवेशकों को करोड़ों की रकम गंवानी पड़ी. माना जाता है कि इस घोटाले में कई बैंकों को सम्मिलित रूप से तकरीबन पांच हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ.  
इस घोटाले के सामने आने के बाद तमाम निवेशकों और जनता के सामने सबसे बड़ा सवाल ये था कि आखिर मेहता को बैंकों से पैसा मिला कैसे?दरअसल आमतौर पर बैंक  आपस में अल्पावधि (अधिकतम 15 दिन) के लिए ऋण का लेनदेन करते हैं. एक बैंक को जब अपनी तत्काल नकद आपूर्ति बढ़ानी होती है तब वो दूसरे बैंकों के पास सरकारी प्रतिभूतियां गिरवी रखकर पैसा उधार ले लेता है. लेकिन इस तरह के सौदों में वास्तविक रूप से सरकारी प्रतिभूतियों का लेनदेन नहीं होता. जिस बैंक को नकद की जरूरत है, वो एक बैंक रिसीप्ट (बीआर) जारी करता है जो ऋण उपलब्ध कराने वाले बैंक को दी जाती है. बीआर इस बात की गारंटी होती हैं कि उधार लेने वाले बैंक की सरकारी प्रतिभूतियों पर ऋण देने वाले बैंक का अधिकार है. दो बैंकों के बीच इस तरह का लेनदेन बिचौलिए के माध्यम से किया जाता है. मेहता को बैंकों के इस लेनदेन की सारी बारीकियों का पता था. शेयर बाजार में उसकी अच्छी खासी साख थी जिसका फायदा उठाते हुए उसने दो छोटे बैंकों- बैंक ऑफ कराड (बीओके) और मेट्रोपॉलिटन को-ऑपरेटिव बैंक (एमसीबी) से फर्जी बीआर जारी करवाईं. इनके बदले मेहता ने कई बैंकों से नकद पैसा लिया और उसे शेयर बाजार में लगाया. इससे वह फौरन मुनाफा कमाता और बैंकों का पैसा उन्हें लौटा देता. जब तक शेयर बाजार ऊपर चढ़ता रहा तब तक तो इसकी भनक किसी को नहीं लगी लेकिन अप्रैल 1992 में मेहता के इस खेल का अंत हो गया. इस घोटाले का सबसे अहम परिणाम यह हुआ कि सरकार शेयर बाजार में नियमन को लेकर सजग हो गई. और उसने बाजार पर निगरानी और नियमन के लिए भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) का गठन कर दिया.

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

नीरा राडिया की रामकहानी

अरबों रुपये  के संचार घोटाले से घिरी लॉबीइस्ट नीरा राडिया ने पिछले दिनों अपने जन्मदिन पर दक्षिण दिल्ली में एक मंदिर का उद्घाटन किया. इस कृष्ण मंदिर को बनवाने के लिए दान भी उन्होंने ही दिया था. इस मौके पर मौजूद रहे लोग बताते हैं कि राडिया ने मंदिर में काफी देर तक पूजा-अर्चना की. इन दिनों उनके नाम पर जितना बड़ा बवाल मचा हुआ है उसे देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में अब तक के सबसे बड़े इस घोटाले की छाया से बाहर निकलने के लिए उन्होंने ईश्वर से मदद की प्रार्थना की होगी. मंदिर जाने से पहले दक्षिण दिल्ली की सीमा पर बने उनके फार्महाउस पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), आयकर विभाग और सीबीआई के नोटिस पहुंच चुके थे. यह वही फार्महाउस है जो जितना वहां होने वाले धार्मिक भोजों के लिए जाना जाता है उतना ही देर रात तक चलने वाली पार्टियों के लिए भी. दोनों ही आयोजनों में दिल्ली के रसूखदार लोग शामिल होते हैं.
अब यह तो वक्त ही बताएगा कि यह प्रार्थना सत्ता के गलियारों में मौजूद इस अकेली महिला लॉबीइस्ट की कोई मदद कर पाएगी या नहीं. अकसर साड़ी या बिजनेस सूट में नजर आने वाली राडिया के बारे में कहा जाता है कि इंसानी सोच और तकनीकी शब्दावली पर उनकी पकड़ इतनी कुशल है कि अमीर और ताकतवर लोगों की नब्ज टटोलने में उन्हें ज्यादा देर नहीं लगती.
लॉबीइंग की दुनिया में राडिया ने शुरुआती कदम भाजपा के साथ बढ़ाए. फिर उन्होंने कांग्रेस के भीतरी गलियारों तक पहुंच बनाई और माना जाता है कि अब सीपीएम के साथ भी उनकी अच्छी छनती है. उनके बारे में होने वाली चर्चाएं बताती हैं कि आज उनकी निजी संपत्ति 500 करोड़ रु से ऊपर की है.

कर चोरी को पकड़ने के लिए कुछ समय पहले आयकर विभाग ने जब कुछ लोगों के फोन टेप करने शुरू किए थे तो ऐसा करने वाले अधिकारियों को अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि यह रूटीन काम उन्हें इतने बड़े घोटाले तक पहुंचा देगा. अब आयकर विभाग समेत दूसरी कई एजेंसियां भी यह जानने की कोशिश कर रही हैं कि क्या दिल्ली की सत्ता के गलियारों में राडिया की पहुंच इस कदर है कि वे किसी को भी मंत्री बनवा दें या फिर अपने कॉरपोरेट क्लाइंटों के हित में सरकार से नीतियां बनवा दें.
उधर, प्रवर्तन निदेशालय यह जानने की कोशिश कर रहा है कि कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस के लिए बनी राडिया की कंपनी के जरिए पैसा किससे किसको पहुंचा. शायद राडिया को भी ईडी की इस मंशा के बारे में अंदाजा हो गया था, इसलिए पूछताछ के लिए सबसे पहले भेजे गए नोटिसों को उन्होंने स्वास्थ्य संबंधी कारणों का हवाला देकर टालने की कोशिश की. इस दौरान मिले समय का इस्तेमाल उन्होंने उत्तर प्रदेश के कुछ नेताओं से संपर्क करने में किया. बताया जाता है कि राडिया ने उनसे कहा कि वे अपने राज्य के कैडर के अधिकारियों को खामोश रहने के लिए कहें जो इस घोटाले की जांच कर रहे हैं. लेकिन एक लाख 76 हजार करोड़ रु के इस घोटाले की आंच में कोई अपने हाथ नहीं जलाना चाहता था.
राजनीतिक रूप से राडिया को अलग-थलग पड़ते देख जांच एजेंसियों की हिम्मत बढ़ी. पूछताछ के लिए उन्हें फिर से नोटिस भेजे गए. इस बार इन नोटिसों की भाषा काफी तल्ख थी. 24 नवंबर को राडिया ईडी के दफ्तर पहुंचीं. शायद मीडिया की नजर से बचने के लिए उन्होंने वक्त चुना सुबह सवा नौ बजे. उस समय तक तो जांच अधिकारी भी दफ्तर नहीं पहुंचे थे. जांच में शामिल ईडी के एक बड़े अधिकारी राजेश्वर सिंह से जब तहलका ने बात करने की कोशिश की तो वे इससे ज्यादा कुछ भी कहने को तैयार नहीं हुए कि वे शायद भारत में हुए अब तक के सबसे बड़े घोटाले की जांच कर रहे हैं.
जब तक राडिया ईडी के दफ्तर से बाहर निकलतीं तब तक वहां मीडिया का भारी-भरकम जमावड़ा लग गया था. सवालों की बौछार के बीच वे सधे हुए शब्दों में उसी नफासत के साथ बोलीं जो किसी पीआर प्रोफेशनल की पहचान होती है. कुछ भी ज्यादा कहने से बचते हुए उन्होंने जो कहा उसका मतलब यही था कि मामला अदालत में है और उनकी तरफ से पूरा सहयोग दिया जाएगा.
उधर, सीबीआई अधिकारियों का दावा है कि उनके पास ऐसे सबूत हैं जो बताते हैं कि राडिया की कंपनी का डाटा यूक्रेन स्थित सर्वरों (जिन तक किसी तीसरे पक्ष की पहुंच बहुत मुश्किल होती है) पर रहा है और उनके और उनके करीबी सहयोगियों ने अपने फोनों पर ऐसे इजराइली उपकरण लगा रखे थे जिनसे नंबरों की निगरानी संभव नहीं हो पाती. सीबीआई के पास वैष्णवी कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस की चेयरपर्सन राडिया और नेताओं, नौकरशाहों और कुछ बड़े पत्रकारों के बीच 180 घंटे की बातचीत है जो उन्हें उस दूरसंचार घोटाले के केंद्र में खड़ा कर सकती है जिसने ए राजा की कुर्सी छीन ली. गौरतलब है कि संचार मंत्री रहे राजा को वास्तविक कीमत से कहीं कम कीमत पर 2जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस बेचने से उठे विवाद के बाद अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था.
सीबीआई उन पूर्व नौकरशाहों और राडिया के बीच के गठजोड़ की भी जांच कर रही है जिन्हें राडिया ने इसलिए नौकरी पर रखा था ताकि वे अपने क्लाइंटों के हिसाब से नीतियां बनवा सकें. उनके क्लाइंटों में टाटा, रिलायंस, आईटीसी, महिंद्रा, लवासा, स्टार टीवी, यूनिटेक, एल्ड हेल्थकेयर, हल्दिया पेट्रोकैमिकल्स, इमामी और बिल ऐंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन जैसे बड़े नाम हैं.
पिछले ही हफ्ते राडिया के करीबियों में से एक प्रदीप बैजल से सीबीआई ने चार घंटे से भी ज्यादा समय तक पूछताछ की. गौरतलब है कि बैजल दूरसंचार मंत्रालय के पूर्व सचिव हैं और देश में विवादास्पद विनिवेश प्रक्रिया को शुरू करने का श्रेय उन्हीं को जाता है. सीबीआई ने उनसे गुयाना और सेनेगल जैसे अफ्रीकी देशों में उनके तथाकथित निवेशों के बारे में पूछताछ की.
इस बारे में ज्यादा जानकारी देने से इनकार करते हुए ईडी अधिकारी राजेश्वर सिंह बस इतना ही कहते हैं, 'आरोप गंभीर हैं.' सीबीआई और ईडी अधिकारियों ने तहलका को बताया है कि यह साबित करने के लिए उनके पास पर्याप्त सबूत हैं कि डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रियल पॉलिसी ऐंड प्रोमोशन में सचिव रहे अजय दुआ, पूर्व वित्त सचिव सीएम वासुदेव, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन एसके नरूला और नागरिक उड्डयन सचिव रहे अकबर जंग जैसे रिटायर्ड नौकरशाह राडिया के इशारे पर काम करते हैं.
दूसरी तरफ, आयकर विभाग की जांच बताती है कि रीयल एस्टेट कंपनी यूनिटेक को टेलीकॉम लाइसेंस दिलवाने में राडिया ने अहम भूमिका निभाई.
ईडी अधिकारियों ने तहलका को बताया है कि यूनिटेक के लिए 1,600 करोड़ रु जुटाने में राडिया की अहम भूमिका थी. गौरतलब है कि यूनिटेक
भी उन विवादास्पद कंपनियों में से एक है जिसे ये टेलीकॉम लाइसेंस हासिल हुए थे. कंपनी ने अपनी दूरसंचार फर्म का एक बड़ा हिस्सा आखिरकार नार्वे की एक कंपनी टेलेनॉर को बेचा और उस कीमत से सात गुना ज्यादा पैसा वसूला जो उसने लाइसेंस खरीदने के लिए चुकाई थी.
एजेंसियों के पास जो बातचीत रिकाॅर्ड है उसके कुछ हिस्से राडिया का संबंध लंदन स्थित वेदांता समूह से भी जोड़ते हैं. गौरतलब है कि उड़ीसा के कालाहांडी जिले में अपनी खनन परियोजनाओं में पर्यावरण संबंधी मानकों का उल्लंघन करने के लिए इस समूह की काफी आलोचना हुई है. विश्वस्त सूत्रों ने तहलका को यह भी बताया है कि वेदांता समूह ने राडिया को भारत में अपनी नकारात्मक छवि को बदलने की भी जिम्मेदारी सौंपी थी. नतीजा यह हुआ कि अखबारों और पत्रिकाओं में वेदांता को अच्छा बताते कई महंगे विज्ञापन छपे. लेकिन इनसे कोई खास असर नहीं हुआ क्योंकि पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने उसकी परियोजना को रद्द कर दिया.
बातचीत के टेप राडिया का संबंध सुनील अरोड़ा से भी साबित करते हैं. अरोड़ा राजस्थान में तैनात आईएएस अफसर हैं जिन्होंने राडिया को अलग-अलग मंत्रालयों में तैनात अपने दोस्तों तक पहुंचाया. इन टेपों में रिकॉर्ड बातचीत उन नोट्स का हिस्सा है जो सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट को सौंपे हैं. ऐसा लगता है कि नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल पटेल के खिलाफ मोर्चा खोलकर इंडियन एयरलाइंस के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर की अपनी कुर्सी गंवाने वाले अरोड़ा ने राडिया के लिए भारत में कई दरवाजे खोले. यह पता चला है कि इंडियन एयरलाइंस के मुखिया के तौर पर अरोड़ा के कार्यकाल के दौरान सात विमान उन कंपनियों से लीज पर लिए गए थे जिनके एजेंट के तौर पर राडिया की कंपनियां काम कर रही थीं. वरिष्ठ आयकर अधिकारी अक्षत जैन कहते हैं, 'हमारे पास सबूत हैं कि राडिया की कंपनी ने अरोड़ा के मेरठ स्थित भाई को काफी पैसा दिया है.'
अब राडिया की पृष्ठभूमि पर एक नजर. 19 नवंबर ,1960 को सुदेश और इकबाल मेमन के घर नीरा राडिया का जन्म हुआ. ईदी आमिन के पतन के वक्त उनके परिवार को अफ्रीका छोड़कर ब्रिटेन जाना पड़ा. कभी कुख्यात हथियार डीलर अदनान खशोगी का उभरता प्रतिद्वंद्वी कहे जाने वाले मेमन ने लंदन में विमान लीज कारोबार में काम शुरू किया. परिवार के इस कारोबार की राडिया स्वाभाविक उत्तराधिकारी थीं. लंदन में उन्होंने एक अमीर व्यापारी परिवार से ताल्लुक रखने वाले जनक राडिया से शादी की. सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि 1996 में काले धन की जमाखोरी के एक मामले में वे जांच के घेरे में आईं और फिर वे भागकर भारत आ गईं. यहां पहले उन्होंने तब सहारा सुप्रीमो सुब्रत रॉय के चहेते उत्तर कुमार बोस के साथ काम किया जो एयर सहारा का काम देख रहे थे. सहारा इंडिया के निदेशकों में से एक अभिजित सरकार भी इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं, 'उन्होंने कुछ समय तक हमारे लिए काम किया.' मगर बोस तब राय की नजरों से उतर गए जब यह पाया गया कि जो एयरक्राफ्ट लीज पर लिए गए हैं उनके किराए बाजार भाव से 50 फीसदी ज्यादा हैं.
इसके बाद राडिया ने अपने बूते आगे बढ़ने का फैसला किया. उनकी नजर बंद हो चुकी मोदीलुफ्त पर थी जिसे फिर से शुरू कर वे मैजिक एयर के नाम से चलाना चाहती थीं, मगर इसके लिए उन्हें जरूरी मंजूरियां नहीं मिलीं. ताकतवर प्राइवेट एयरलाइंस लॉबी ने हर कदम पर उन्हें मात दी और जल्दी ही राडिया ने इस काम के लिए खाड़ी स्थित जिन फायनेंसरों को राजी किया था वे पीछे हट गए. मलेशियन एयरलाइंस सहित कई एयरलाइनों से पायलटों और उड्डयन विशेषज्ञों की जो क्रैक टीम राडिया ने बनाई थी वह एक लंबी और परेशान कर देने वाली यथास्थिति के बाद टूट गई.
ऐसे कई लोग हैं जो दावा करते हैं कि राडिया आज भी जेट एयरवेज के मुखिया नरेश गोयल और नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल पटेल से खार खाती हैं. उन्हें लगता है कि इन दोनों व्यक्तियों की वजह से उनकी अपनी एयरलाइन का सपना पूरा नहीं हो सका. राडिया को क्राउन एयर के प्रोमोटर के तौर पर सुरक्षा मंजूरी तो नहीं मिली लेकिन वे तत्कालीन उड्डयन मंत्री और भाजपा के अनंत कुमार के करीबी संपर्क में आ गईं. भाजपा नेतृत्व के सूत्र बताते हैं कि जब पीएमओ से उन्हें साफ संकेत मिले कि कुमार की कुर्सी जाने वाली है तो राडिया ने मान लिया था कि क्राउन एयर अब एक मर चुका सपना है. इसके बाद भी राडिया ने एनडीए शासनकाल के दौरान जमीन का एक विशाल टुकड़ा बहुत ही सस्ते दामों में अपनी स्वर्गवासी मां के नाम पर बनी सुदेश फाउंडेशन को आवंटित कराने में सफलता पा ली.
आईबी की एक पुरानी रिपोर्ट बताती है कि राडिया को सुरक्षा संबंधी मंजूरी देने के खिलाफ जो एतराज थे उनमें से कुछ का संबंध मुंबई स्थित एक व्यक्ति चंदू पंजाबी के साथ उनकी डीलिंग से भी था जिसकी पृष्ठभूमि संदिग्ध थी. पंजाबी ठाकरे परिवार का भी करीबी था. राडिया ने फिल्म अग्निसाक्षी की फंडिंग में भी अहम भूमिका निभाई थी. इस फिल्म के निर्माता बाल ठाकरे के बेटे बिंदा ठाकरे थे. पंजाबी के बारे में बताया जाता है कि बांद्रा स्थित सी रॉक होटल में उसका भी कुछ हिस्सा था. 1992 में मुंबई में हुए सीरियल ब्लास्टों में से एक इस होटल में भी हुआ था और अब यह होटल टाटा समूह की इंडियन होटल्स कंपनी द्वारा चलाया जाता है. नेटवर्किंग के अपने गुण की बदौलत राडिया ने सिंगापुर एयरलाइंस के साथ तालमेल स्थापित कर लिया और भारत में उसके रखरखाव, रिपेयर और ओवरहॉल सुविधा स्थापित करने में मदद की. सरकार की नीति में इस बदलाव  कि विदेशी एयरलाइंस भारत में नहीं आ सकतीं, के बारे में भी यह चर्चा चली थी कि यह बदलाव उनके विरोधियों गोयल और पटेल ने करवाया था.
नौकरशाह और राजनेताओं से अपने संपर्क और कुमार के साथ उनके गठजोड़ ने राडिया के लिए दिल्ली की सत्ता के गलियारों के कई दरवाजे खोले. एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के एक पूर्व मुखिया और एनडीए सरकार के दौरान ताकतवर रहे नौकरशाह एसके नरूला रिटायर होने के बाद भी राडिया के विश्वासपात्र हैं और उनकी तरफ से सरकार के साथ कुछ महत्वपूर्ण सौदेबाजियों को अंजाम देते हैं.
राडिया को सबसे बड़ा ब्रेक तब मिला जब उनका परिचय रतन टाटा के करीबी सहयोगी आरके कृष्ण कुमार से हुआ. कुमार वही शख्स थे जिन्हें टाटा ने अपनी एयरलाइन के सपने को हकीकत में बदलने की जिम्मेदारी सौंपी थी. टाटा-सिंगापुर एयलाइंस गठजोड़ नाकाम रहा मगर जल्दी ही राडिया ने पब्लिक रिलेशंस के क्षेत्र में फिर से शरुआत की. उन्होंने वैष्णवी कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस की शुरुआत की और उन्हें टाटा समूह की सभी कंपनियों का काम मिल गया. अब उनके पास भारत के सबसे प्रतिष्ठित कारोबारी घराने का नाम था. जल्दी ही उनकी कंपनी की जड़ें आठ शहरों में जम गई थीं.
जब टाटा समूह टाटा फायनैंस के दिलीप पेंडसे के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई करना चाहता था और पेंडसे ने मराठी मानुस कार्ड खेलकर उसका यह प्रयास विफल कर दिया था तब एक दिन दिल्ली पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा ने पेंडसे को एक बहुत ही छोटे मामले में गिरफ्तार कर लिया. पेंडसे ने आरोप लगाया कि यह सब राडिया के इशारे पर हुआ है क्योंकि पुलिस विभाग में पहुंच उनकी रणनीतियों का एक अहम पहलू है. यह एक ऐसा हथियार है जिसे वे अकसर अपना काम निकालने के लिए इस्तेमाल करती हैं. इसका राडिया को इतना खयाल है कि पिछले आठ सालों में एक स्टाफर को इसी काम के लिए रखा गया है कि ग्राउंड लेवल पर काम करने वाले पुलिसकर्मियों के साथ रिश्ते बनाकर रखे जाएं. उधर, राडिया पुलिस के सीनियर स्टाफ के साथ बनाकर रखती हैं. दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर केके पॉल राडिया के करीबी दोस्त थे जिन्हें एनडीए की सरकार के आखिरी चार महीने के दौरान ही यह पद मिला था. महाराष्ट्र के एक पूर्व डीजीपी को जब फरवरी, 2007 में रातों-रात मुंबई पुलिस कमिश्नर के पद से हटाया गया तो यह चर्चा खूब उड़ी थी कि राडिया उसे दिल्ली में सीबीआई या किसी इंटेलिजेंस एजेंसी में कोई अहम पद दिलवाने के लिए भारी लॉबीइंग कर रही हैं. इंटेलिजेंस के सूत्र मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर हसन गफूर से जुड़े उस विवाद में राडिया का हाथ होने से इनकार नहीं करते जब उनका एक विवादास्पद इंटरव्यू एक मैगजीन में छप गया था. इससे पहले वे महाराष्ट्र के डीजीपी पद के लिए पहली पसंद कहे जा रहे थे. गफूर विवाद का फायदा एएन राय को हुआ जो टाटा मोटर्स के मुखिया रविकांत के करीबी रिश्तेदार हैं. राय भी दक्षिण मुंबई के उसी रेजीडेंसियल कांप्लेक्स में रहते हैं जहां कांत सहित टाटा मोटर्स के तीन-चार बड़े लोगों का आशियाना है.
दिलचस्प यह भी है कि राडिया ने अपनी कमर्शियल एयरलाइन का सपना 2004 में एक बार फिर जिंदा किया और फिर मलेशियन एयरलाइंस के उड्डयन विशेषज्ञों की एक टीम बनाई. इसके मुखिया नग फूक मेंग पहले भी क्राउन एयर का हिस्सा रह चुके थे. अपने विरोधी प्रफुल पटेल के उड्डयन मंत्री होने के बावजूद आशावादी राडिया इस मोर्चे पर जम गईं. लेकिन 14 महीने तक कोशिशों के बाद आखिरकार उन्हें मैदान छोड़ना पड़ा.
इसी अवधि के दौरान राडिया ने दयानिधि मारन के साथ भी एक तीखी लड़ाई लड़ी. मारन, कारोबारी सी शिवशंकरन को रतन टाटा के कथित संरक्षण से नाराज थे. राडिया ने डीएमके मुखिया करुणानिधि की पत्नी राजति अम्मल के एक करीबी के साथ संपर्क बढ़ाया और चेन्नई की कई यात्राएं करके अम्मल के साथ अच्छी दोस्ती कर ली. उन्हें तब मौका मिला जब मारन और करुणानिधि परिवार में फूट पड़ी जिसकी वजह से दयानिधि मारन को संचार मंत्रालय छोड़ना पड़ा. माना जाता है कि राडिया  चेन्नई गईं और उन्होंने डीएमके सुप्रीमो, उनके बेटे एमके स्टालिन और टाटा के बीच एक गुपचुप वार्ता आयोजित की थी.
एएआई के पूर्व सीएमडी नरूला ने नौकरशाही के उस शीर्ष स्तर तक उनकी पहुंच के द्वार खोले जिसके रिटायर होने में पांच-छह साल बचे होते हैं और जो रिटायर होने के बाद कॉरपोरेट इंडिया के साथ अवसरों की तलाश में होता है. बैजल और वासुदेव ने भी इस काम में अहम भूमिका निभाई. इनकी सेवाओं का इनाम देते हुए राडिया ने बैजल, वासुदेव और नरूला को पार्टनर बनाते हुए नियोसिस नाम की फर्म खोली. जल्दी ही इसने टेलीकाॅम क्षेत्र की बड़ी खिलाड़ी हुवाई सहित कुछ चीनी कंपनियों को अपनी परामर्श सेवाएं देनी शुरू कर दीं.
राडिया की इस अचानक बड़ी छलांग और सिंगापुर की उनकी कई यात्राओं ने कई लोगों का ध्यान उनकी तरफ खींचा. बताया जाता है कि बड़े नकद सौदों में से कुछ को उनके नाम से मिलते-जुलते कोड के साथ किया गया था. उनकी अबाध उन्नति ने बहुतों को हैरान भी किया. उन्होंने रिलायंस इंडस्ट्रीज लि. (आरआईएल) का काम संभाला तो अपने संपर्कों की बदौलत मुकेश अंबानी को करोड़ों का अप्रत्याशित लाभ करवा दिया. आरआईएल का काम संभालने के लिए राडिया ने न्यूकॉम बनाई. अब भारत के दो सबसे बड़े उद्योगपति उनके पास थे, जिनसे उन्हें चर्चाओं के मुताबिक 100 करोड़ रु सालाना मिल रहे थे. राडिया ने इस क्षेत्र में काम शुरू करने के छह साल के भीतर ही हर स्थापित खिलाड़ी को मीलों पीछे छोड़ दिया था. जल्दी ही वे कॉरपोरेटों के लिए ही नहीं बल्कि राज्य सरकारों को भी अपनी सेवाएं देने लगीं. तेलगू देशम पार्टी के मुखिया चंद्रबाबू नायडू और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी उन लोगों में से कुछ हैं जिनके साथ राडिया ने करीबी से काम किया. कहा जाता है कि नैनो प्रोजेक्ट को बंगाल से गुजरात लाने में राडिया की भूमिका अहम थी.
अगर स्पेक्ट्रम घोटाला इतना बड़ा नहीं हुआ होता तो उनकी यह निर्बाध यात्रा निश्चित रूप से जारी रहती. मगर राडिया जिस कारोबार में हैं वहां टिके रहने के लिए नेताओं और कॉरपोरेट्स के विश्वास की जरूरत होती है. और ये दोनों इसमें पैसे के लिए आते हैं. इसके अलावा कोई भी ऐसे शख्स के साथ काम नहीं करना चाहता जिसकी छवि पर दाग लग चुका हो.  [शांतनु गुहा रे]
[साभार तहलका]

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

सिटी बैंक घोटाला

 सिटी बैंक की गुड़गांव शाखा में 400 करोड़ रूपए से ज्यादा के घोटाले का मामला सामने आया है। मामले में बैंक ने एक एफआईआर भी दर्ज कराते हुए आतंरिक जांच भी शुरू कर दी है। बीते 20 वर्षाें में किसी विदेशी बैंक में इस तरह के बड़े घोटाले की यह पहली घटना है। सिटी बैंक की ओर से जारी विज्ञप्ति के मुताबिक, 400 करोड़ की यह हेरफेर करीब 20 बड़े खातों से की गई। यहां उन ग्राहकों को चूना लगा, जिनका 4 से पांच करोड़ रूपए नेटवर्थ है। सफाई से हाथ साफ
सूत्रों के मुताबिक, इस शाखा में तैनात कर्मचारी शिवराज पुरी ने इन बड़े खाता धारकों के खातों में बड़ी चालाकी से हेरफेर किया। पुरी ने ग्राहकों को झूठे दावे कर कंपनी के नाम पर एक गैर आधिकारिक प्रोडक्ट को बेचा। इस घोटाले में शिवराज के अलावा और भी कर्मचारियों की मिलीभगत भी हो सकती है।
सिटी बैंक की एशिया पैसिफिक फ्रॉड रिस्क मैनेजमेंट टीम भारत आ चुकी है।  यह घोटाला तब सामने आया जब बैंक के एक बड़े ग्राहक ने एक अति वरिष्ठ अधिकारी से बातचीत के दौरान बताया कि उन्होंने बैंक से एक ऎसा प्रॉडक्ट खरीदा है जो उन्हें 3 महीने के अंदर 21 रिटर्न देगा।

बोफोर्स,एक घोटाले की प्रेतमुक्ति

दो दशक और 250 करोड़ रुपए खर्च करने के बाद निष्कर्ष ये है कि बोफोर्स मामले को यहीं दफन कर दिया जाए. शांतनु गुहा रे इस बहुचर्चित कांड के विभिन्न पड़ावों और इससे जुड़ी तमाम किंवदंतियों को याद कर रहे हैं -
स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम के पश्चिमी छोर से निकलने वाली साफ-सुथरी सड़क के दोनों किनारों पर फैले ग्रामीण अंचल के नयनाभिराम दृश्यों को देखते हुए घंटे भर में आप कार्ल्सकोगा पहुंच जाएंगे. तकरीबन 1500 की आबादी वाला एक बेहद शांत सा कस्बा है कार्ल्सकोगा. दशकों से यहां के निवासी जिस आयुध निर्माण कंपनी में काम करके अपनी आजीविका चलाते आ रहे हैं उसका नाम है एबी बोफोर्स. 1873 में स्थापित हुई इस कंपनी का नाम पास ही में चलने वाली सत्रहवीं सदी की एक हैमरमिल के नाम पर पड़ा जिसे लोग बूफोर्स के नाम से पुकारा करते थे.
25 मार्च, 1986 की रात कार्ल्सकोगा का आसमान आतिशबाजियों की चकाचौंध से गुलजार था, लोग खुशी से पागल हुए जा रहे थे. हमेशा शांत रहने वाले इस कस्बे में मानो दीवाली मनाई जा रही थी. कंपनी में काम करने वाले पुरुष अपनी संगिनियों के साथ सज-संवर कर शैंपेन की बोतलें उड़ेल रहे थे. वो खुशी की रात थी. पैसे और काम की कमी से जूझ रही एबी बोफोर्स को एक नया जीवन जो मिल गया था. दरअसल एक दिन पहले ही उसके हाथ भारतीय सेना को 400 हॉवित्जर  तोपें (155 एमएम) आपूर्ति करने का ठेका मिला था जिसकी कुल कीमत थी 1,437 करोड़ रूपए.
एबी बोफोर्स के आंतरिक दस्तावेज बताते हैं कि ‘वो पूरी रात नाचते-गाते और जश्न मनाते रहे. इस उत्सव का आयोजन सत्ताधारी लेबर यूनियन पार्टी ने किया था जिसका समापन पूरे कस्बे ने अलोफ पामे को धन्यवाद ज्ञापित करने वाले एक पत्र पर हस्ताक्षर करके किया. पामे स्वीडन के पूर्व प्रधानमंत्री थे जिन्होंने इस सौदे को अंजाम तक पहुंचाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी लेकिन सौदे पर दस्तखत होने के महीने भर पहले ही उनकी हत्या कर दी गई थी. कस्बेवालों को उस वक्त इस बात का रत्तीभर भी अंदेशा नहीं था कि जिस ऐतिहासिक सौदे को लेकर वो इतनी खुशियां मना रहे हैं वो जल्द ही भारत के इतिहास के सबसे कुख्यात घोटाले में तब्दील होने वाला है. जल्द ही ये आरोप फिजा में तैरने लगे कि सौदे को पक्का करने के लिए 64 करोड़ रुपए की घूस दी गई. ये ऐसा घोटाला था जो अगले दो दशकों तक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सर पर चढ़ कर नाचने वाला था.
आने वाले समय में इस घोटाले ने देश के इतिहास की सबसे मजबूत सरकार की बलि ले ली और कभी ‘मिस्टर क्लीन’ के नाम से पुकारे जाने वाले प्रधानमंत्री- राजीव गांधी - के ऊपर भी इस घोटाले की कालिख के तमाम छींटे पड़े; इस घोटाले ने सियासत के एक नए सितारे - वीपी सिंह - को जन्म दिया जिन्होंने इस मुद्दे पर पूरे देश में अभियान चलाया और अंत में प्रधानमंत्री की कुर्सी तक जा पहुंचे; प्रभावशाली उद्योगपति - हिंदुजा भाइयों - को भी इस घोटाले ने अपनी चपेट में लिया और उन्हें छुटभैए अपराधियों की तरह देश की निचली अदालत के चक्कर काटने पड़े; और घोटाले से कथित तौर पर जुड़े एक अहम खिलाड़ी ने तो इसके चलते ट्रेन से कटकर अपनी जान तक दे दी. मगर एक बिचौलिया - इतालवी व्यापारी ओतावियो क्वात्रोकी- जो इस मामले में वांछित था - नाटकीय रूप से इंटरपोल की गिरफ्त में आने से बच निकला जबकि एक और बोफोर्स एजेंट- विश्वेश्वरनाथ ‘विन’ चड्ढा - सालों तक निर्वासन में रहा और दिल्ली लौटने के कुछ ही दिनों बाद हार्ट अटैक से उसकी मौत हो गई.
इसके अलावा अलोफ पामे की फरवरी 1986 को संदिग्ध हालत में उस समय हत्या हो गई जब वो अपनी पत्नी के साथ स्टाकहोम के एक थियेटर से फिल्म देखकर बाहर निकल रहे थे. बोफोर्स सौदे के महीने भर पहले हुई उनकी हत्या का राज भी आज तक राज ही बना हुआ है. असल में बोफोर्स की कथा की तुलना किसी भी सास-बहू वाले सीरियल से की जा सकती है जिसमें कभी भी कुछ भी हो सकता है मगर कहानी कभी अंत की ओर जाती नहीं दिखती.
बोफोर्स घोटाले ने आम जनमानस के ऊपर इस कदर असर डाला था कि देश भर में गांवो, कस्बों और शहरों की दीवारों पर इससे जुड़े नारे लिखे दिख जाते थे. इस घोटाले ने किस कदर राजीव गांधी की प्रतिष्ठा को चौपट किया था इसका अंदाजा हमें उस समय की एक घटना से मिल जाता है. पटना के आकाशवाणी केंद्र में एक दस वर्षीय बच्चे से कोई कविता पढ़ने के लिए कहा गया तो उसने छूटते ही लाइव कार्यक्रम में कह डाला, ‘गली गली में शोर है, राजीव गांधी चोर है.’ शाम होते-होते बेचारा आकाशवाणी निदेशक अपने घर का प्यारा हो चुका था.
बोफोर्स घोटाले का प्रभाव इतना व्यापक था कि किसी सुपरहिट टेलीविजन सोप की तरह इसमें तमाम छोटे-छोटे उप-विवाद और घोटाले  भी जन्म लेते रहे- मसलन राजीव गांधी प्रशासन ने वीपी सिंह के पुत्र को भ्रष्टाचार के फर्जी मामले में फंसाने की कोशिश की, सीबीआई ने बार-बार इस मामले को लटकाने और अदालत को गुमराह करने के प्रयास किए.
ये भी उतना ही बड़ा सच है कि दो दशकों तक देश और विदेश में थका देने वाली कानूनी प्रक्रियाओं के बावजूद इस मामले में एक भी व्यक्ति को दोषी करार नहीं दिया जा सका. मलेशिया से लेकर अर्जेंटीना और ब्रिटेन तक इसका दायरा फैला हुआ था, पनामा से लेकर लिसेंस्टीन और लक्जमबर्ग तक अनगिनत बार कानूनी खतो-किताबत भी हुई जिसका उद्देश्य था घोटाले से जुड़ी रकम कहां-से कहां और कैसे गई, इसकी जांच करना. लेकिन बोफोर्स का जिन्न आज भी बार-बार कांग्रेस पार्टी और विशेषकर पार्टी की अध्यक्षा सोनिया गांधी के के गले की हड्डी बना हुआ है. कुछ दिन पहले सरकार द्वारा क्वात्रोकी के खिलाफ आपराधिक आरोप वापस लेने के फैसले से तत्काल ही उन तमाम लोगों की भृकुटियां तन गईं जिन्होंने इस मामले को रफा-दफा करने की हर सरकारी कोशिश का कदम-कदम पर प्रतिरोध किया था.
‘क्वात्रोकी के खिलाफ मामला वापस लेने का फैसला उस कोशिश का नतीजा है जो लंबे समय से इस मामले को खत्म करने के लिए की जा रही थी. इस कदम के साथ ही बोफोर्स घूस मामले पर पर्दा डालने की कोशिशें पूरी हो गई हैं’ ये कड़ी प्रतिक्रिया सीपीआई (एम) ने 29 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट के सम्मुख दिए सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम के उस बयान के बाद दी जिसमें उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार ने इतालवी व्यापारी के खिलाफ मामला खत्म करने का फैसला किया है.
पूर्व राजदूत बीएम ओझा, जो कि सौदे पर दस्तखत के वक्त स्वीडन में भारतीय राजदूत थे, ने एक समाचार एजेंसी को बताया, ‘अगर क्वात्रोकी को भारत लाया भी जाता तो भी वो नेताओं को दी घूस की जानकारी नहीं देने वाला था क्योंकि वो पहले ही बता चुका है कि राजीव गांधी से उसके बहुत अच्छे पारिवारिक रिश्ते थे. इसलिए ईमानदारी से कहा जाए तो ये रास्ता बंद होना है.’ ओझा की बात सही लगती है.
‘भारत में बोफोर्स मामले में किसी ने कुछ नहीं किया. सारे लोग बस इसे दूर से देखते और एक-दूसरे पर आरोप लगाते रहे.’ सीपीआई नेता डी राजा चुटकी लेते हैं. मुख्य विपक्षी दल भाजपा सारा ठीकरा कांग्रेस के सिर ये कह कर फोड़ रही है है कि कांग्रेस का रवया इस मामले में बेहद ढुलमुल रहा है. ‘हमने क्वात्रोकी के खाते सील किए, उसके खिलाफ इंटरपोल से रेड कॉर्नर नोटिस जारी करवाया लेकिन कांग्रेस की सहायता से वो बच निकला’ ये कहना है भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी का. मजे की बात ये है कि राजीव गांधी के ही एक फैसले ने बोफोर्स मामले को घूस कांड में बदला था. साल 1984 के आखिरी दिनों में लोकसभा चुनावों की सबसे बड़ी जीत दर्ज करके प्रधानमंत्री का पद संभालने वाले राजीव गांधी ने फैसला किया कि अब से सैनिक साजो-सामान की कोई भी खरीदारी सीधे-सीधे सरकार और आपूर्तिकर्ता के बीच होगी, इसमें किसी बिचौलिए की भूमिका नहीं होगी. ये फैसला उस समय तक चली आ रही व्यवस्था के बिल्कुल विपरीत था. उससे पहले तक दलाली एक नियमित और वैध प्रक्रिया थी, बिचौलियों को हथियार सौदों में एक निश्चित रकम मिला करती थी.
इस सौदे पर बारीकी से निगाह रखने वालों के मुताबिक बोफोर्स सौदे पर दस्तखत से काफी पहले ही यानी मार्च 1986 में इसकी घोषणा से पूर्व ही ये समझौता पक्का हो चुका था. घोषणा के दो महीने पहले ही जब अलोफ पामे छह देशों के राष्ट्राध्यक्षों के एक सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए दिल्ली आए हुए थे तो उस दौरान उनकी राजीव गांधी से एक गोपनीय मुलाकात हुई थी. दिल्ली के मौर्या शेरेटन होटल में हुई इस मुलाकात में पामे ने राजीव गांधी को दलील दी कि अगर ये हथियार समझौता नहीं हुआ तो उनकी लेबर यूनियन पार्टी को आगामी चुनावों में हार का मुंह तक देखना पड़ सकता है. गांधी, जो कि पामे को अपना करीबी दोस्त मानते थे, सौदा एबी बोफोर्स को देने पर राजी हो गए. इस तरह बैठक खत्म करके पामे खुशी-खुशी एयरपोर्ट रवाना हो गए. अतिउत्साह में वो अपना एयरकोट तक लेना भूल गए थे जिसके लिए विदेश मंत्रालय के दो अधिकारियों को तुरंत ही एयरपोर्ट दौड़ाया गया था.
लेकिन समझौते के साल भर बाद ही इसकी परतें उघड़ने लगीं. स्वीडिश रेडियो के दो संवाददाताओं ने 16 अप्रैल 1987 की सुबह ये दावा किया कि बोफोर्स ने सौदा हासिल करने के लिए शीर्ष भारतीय राजनीतिज्ञों और रक्षा अधिकारियों को घूस दी है. भारतीय सरकार ने बिना समय गंवाए इस विस्फोटक खबर को ‘झूठी, आधारहीन और शरारतपूर्ण करार दिया’. इसके बावजूद  खतरे की घंटी बज चुकी थी और प्रधानमंत्री और शीर्ष अधिकारियों के बीच बैठकों की मानो बाढ़ सी आ गई.
खबर उजागर होने के चार दिन बाद 20 अप्रैल 1987 को राजीव गांधी ने लोकसभा को बताया कि सौदे में कोई बिचौलिया या लेन-देन शामिल नहीं है. लेकिन तनाव कम नहीं हुआ क्योंकि विपक्ष इस मामले में अपनी कमर कस चुका था. मजबूरन सरकार को अगस्त 1987 में मामले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की घोषणा करनी पड़ी.
बी शंकरानंद (तत्कालीन राजीव सरकार में मंत्री) की अगुवाई वाली इस जेपीसी ने जुलाई 1989 में अपनी रपट संसद के सामने रखी जिसमें उसने राजीव सरकार को क्लीनचिट दे दी थी. इसके  विरोध में विपक्ष ने संसद से ‘वॉकआउट’ किया और इसके खिलाफ अभियान छेड़ दिया. द हिंदू और इंडियन एक्सप्रेस  इन दो अखबारों ने भी अपनी खोजी रपटों के माध्यम से इतना कुछ जनता के सामने रख दिया कि इस आधार पर मामले में आपराधिक मामला दर्ज किया जा सकता था. नुकसान हो चुका था, कांग्रेस पार्टी को 1989 के आम चुनावों में 200 से भी कम सीटें मिलीं. 
दो दशक बाद बोफोर्स मामले में सीबीआई की जांच भारत की अब तक की सबसे महंगी जांच है जिसमें करदाताओं की गाढ़ी कमाई का करीब 250 करोड़ रुपया खर्च या यूं कहें कि बर्बाद किया जा चुका है. ‘भारत में किसी और मामले की जांच में इतना वक्त नहीं लगा और किसी मामले में इतने सारे पेंच भी नहीं थे.’ मामले की जांच से जुड़े रहे सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह का एक बार कुछ निजी से माहौल में कहना था, ‘इसे दफन करने के लिए ढेर सारा समय और पैसा खर्च किया गया.’
बहरहाल इस मामले में शामिल सभी आरोपी या तो बरी हो गए जैसे कि हिंदुजा बंधु या फिर दुनिया से ही रुखसत हो गए मसलन राजीव गांधी, विन चड्ढा और पूर्व रक्षा सचिव एसके भटनागर. इनमें से राजीव गांधी को दिल्ली हाईकोर्ट ने मरणोपरांत निर्दोष करार दिया. फिलहाल इस मामले का एकमात्र जीवित आरोपी है 70 वर्षीय ओतावियो क्वात्रोकी जो कि 1985 में इतालवी कंपनी स्नैमप्रोगेटी का भारत में प्रतिनिधि था. उसके खिलाफ आरोप है कि उसने राजीव गांधी के मोहरे के रूप में 64 करोड़ रूपए की घूस हासिल की.
‘इसकी वजह ये है कि सरकार में कोई भी मामले को हल करने के लिए इच्छुक नहीं जान पड़ता है,’ सरकार के ताजे रुख पर सुप्रीम कोर्ट के वकील अजय अग्रवाल कहते हैं. जनवरी 2006 को अग्रवाल ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके मांग की थी कि क्वात्रोकी के बैंक अकाउंट को सील करने के लिए सरकार विदेशी कोर्ट का सहारा ले. सुप्रीम कोर्ट ने ने याचिका को स्वीकार करते हुए सरकार को ऐसा करने का निर्देश दिया. अग्रवाल ने अब नई दिल्ली के मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट कावेरी बवेजा के समक्ष एक याचिका दायर करके सीबीआई के ताजा कदम का विरोध किया है. उनका कहना है कि सीबीआई को न्यायपालिका के साथ खेल खेलने की छूट नहीं दी जा सकती है.
विडंबना ये रही कि वीपी सिंह जिन्होंने बोफोर्स घोटाले पर देश के मानस को राजीव गांधी के खिलाफ खड़ा किया और 1988 में इलाहाबाद के उपचुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज की वो अपने 11 महीने के प्रधानमंत्रित्वकाल में इस घोटाले की जांच की गति में तेजी लाने में असफल रहे. जैसे ही राजीव गांधी के समर्थन से वीपी सिंह की जनमोर्चा सरकार से अलग हुए चंद्रशेखर ने सरकार बनाई इस मामले की जांच पूरी तरह से ठप पड़ गई.
1991 के आम चुनावों के मध्य में ही राजीव गांधी की हत्या हो जाने के बाद पीवी नरसिंहा राव प्रधानमंत्री बने. उस दौरान राजनीति के गलियारों में ये एक आम धारणा थी कि राजनीति के चतुर खिलाड़ी राव बोफोर्स जांच का इस्तेमाल सोनिया गांधी को काबू में रखने के लिए कर रहे हैं. 1996 में राव के चुनाव हार जाने के बाद अल्पकाल के लिए बने दो प्रधानमंत्रियों (एचडी देवेगौड़ा और आईके गुजराल) के समय में कुछ भी उम्मीद रखना बेमानी था क्योंकि दोनों ही कांग्रेस की बैसाखी पर टिके हुए थे.
लेकिन विशेषज्ञों को चकराने वाली चीज रही भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए सरकार के दौरान बोफोर्स मामले की जांच में कोई ठोस प्रगति न हो पाना. हालांकि 1998 से 2004 के बीच अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के काल में ही इस मामले में पहला आरोपपत्र निचली अदालत में दाखिल किया गया. इसके बाद सीबीआई ने आरोपियों की सूची में राजीव गांधी का नाम भी इसी दौरान जोड़ा और हिंदुजा भाइयों का नाम भी शामिल किया गया जिन्होंने बोफोर्स को सौदा दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी. पर इसी एनडीए के कार्यकाल में इस मामले में सीबीआई को अदालतों में सबसे बड़े झटके भी लगे थे. इस दौरान दिल्ली उच्च न्यायालय ने राजीव गांधी और हिंदुजा भाइयों के खिलाफ आरोपों को निरस्त कर दिया और उन्हें रिहा करने का आदेश भी दिया. कोर्ट के मुताबिक सीबीआई उन ब्रिटिश उद्योगपतियों के खिलाफ न सिर्फ अपनी जांच ठीक से नहीं कर रही थी बल्कि उन्हें निशाना बनाने में सरकारी धन का दुरुपयोग भी कर रही थी. इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात रही सीबीआई का प्रमाणित किये गए उन दस्तावेजों को अदालत में पेश न कर पाना जो स्विटजरलैंड से मामले को पुख्ता करने के लिए मंगाए गए थे. इसने आरोपियों को बरी कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
इसका एक दूसरा पहलू भी है. दो दशक की उबाऊ जांच के बाद भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठानों में इस मामले के बंद होने को लेकर एक तरह की संतुष्टि का भाव भी देखने को मिल रहा है. उनके मुताबिक ये खबर प्रस्तावित 30 अरब डॉलर के रक्षा सौदों के लिहाज से बहुत अच्छी है. ये देखना और भी दिलचस्प है कि बोफोर्स मामला मुकदमेबाजी के एक नए दौर में प्रवेश कर चुका है और साथ ही इसने कई नए सवालों को भी जन्म दिया है मसलन सीबीआई को या किसी भी जांच एजेंसी को आरोप वापस लेने या कोर्ट को मामला बंद करने की सलाह देने का अधिकार है या फिर क्या ट्रायल कोर्ट इसमें कुछ कर सकता है.
नियमों के तहत तो ट्रायल कोर्ट आरोपपत्र रद्द करने की सीबीआई याचिका से बंधा नहीं है. इसकी बजाय अदालत सीबीआई को निर्देश दे सकती है कि जिस आधार पर वो मामला वापस लेना चाहती है उस पर एक बार फिर से गंभीरतापूर्वक विचार करे और अदालत को सलाह दे कि क्वात्रोकी के प्रत्यर्पण के लिए और क्या-कुछ किया जा सकता है.
कानून मंत्री एम वीरप्पा मोइली पहले ही कह चुके हैं कि बोफोर्स मामला भ्रष्टाचार निरोधक कानून के दायरे में नहीं आता है और न ही क्वात्रोकी समेत इसमें शामिल किसी भी आरोपी के खिलाफ इसके तहत कार्रवाई हो सकती है. पार्टी के नेता इस आधार पर भी मामले को हमेशा-हमेशा के लिए दफन होते देखना चाहते हैं कि ये महज 64 करोड़ रुपए की मामूली घूस का मामला ही तो है.
एक बात तो साफ है कि अगर सीबीआई चाहती तो इस मामले से किसी-न-किसी तरह से जुड़े रहे लोगों की एक लंबी-चौड़ी सूची थी, जो मामले की जांच और अपराधियों को सजा दिलाने में सकारात्मक भूमिका निभा सकते थे. रक्षा मंत्रालय में तत्कालीन संयुक्त सचिव एसके अग्निहोत्री ने सार्वजनिक तौर पर इस सौदे का विरोध किया था. उस वक्त 155 एमएम की तोप की कीमत निर्धारण के लिए बनी समिति के सदस्य रहे अग्निहोत्री का कहना था कि एबी बोफोर्स हमारे गुणवत्ता मानकों को पूरा नहीं करती है. बोफोर्स के हाथ में सौदा जाने सेतीन महीने पहले ही अग्निहोत्री का तबादला कपड़ा मंत्रालय में कर दिया गया. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक बोफोर्स कांड कांग्रेस के लिए उसी तरह का निर्णायक मोड़ था जैसा कि 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस भाजपा के लिए. ‘बोफोर्स ऐसा मुद्दा रहा है जिसने भारतीय राजनीति पर हमेशा अपनी छाया डाली. इसका भूत आज भी भारत की सुरक्षा तैयारियों को सवाल के घेरे में खड़ा करता है’ पूर्व पत्रकार दिलिप चेरियन कहते हैं. पर सवाल ये है कि आखिर इस घोटाले का इतना दीर्घकालिक प्रभाव क्यों पड़ा? उस पीढ़ी के तमाम लोगों की नजर में इस घोटाले ने कांग्रेस पार्टी पर भ्रष्ट संगठन का ठप्पा लगाया जो देश के स्वतंत्रता आंदोलन की अगुवाई वाली अपनी प्रतिष्ठा पहले ही गंवा चुकी थी.
हालांकि इस मामले में अभी तक कुछ भी साबित नहीं हो सका है लेकिन इसका कीचड़ बीते दो दशकों से कांग्रेस के दामन से चिपका हुआ है. बहुतों की निगाह में इसकी वजह ये है कि राजीव गांधी सरकार बार-बार वायदे करने के बावजूद कभी भी सच्चाई को उजागर करने के प्रति गंभीर नहीं रही. जबकि दूसरों का मानना है कि सीबीआई क्वात्रोकी के खिलाफ सबूतों के बावजूद कार्रवाई के प्रति अनिच्छुक रही. उसके खिलाफ अधिकतर सबूत बोफोर्स के अध्यक्ष मार्टिन आर्डबो की गोपनीय डायरी से हासिल हुए थे जिसमें ‘क्यू’, ‘नीरो’ और ‘गांधी का विश्वस्त वकील’ जैसे शब्दों का बार-बार जिक्र हुआ था. माना जाता है कि क्यू क्वात्रोकी के लिए और नीरो अरुण नेहरू के लिए इस्तेमाल हुआ था जो कि उस वक्त कैबिनेट में एक ताकतवर मंत्री थे.
1989 के आम चुनावों के प्रचार के दौरान वीपी सिंह हर सभा में अपनी जेब से एक छोटा सा कैलकुलेटर निकालते थे और मौजूद भीड़ से कहते थे कि इस छोटी सी मशीन में स्विस बैंको के खाता नंबर हैं जिनमें बोफोर्स घूस की रकम जमा है. और अगर उन्हें सत्ता हासिल हुई तो वो उन खातों को खोलने में सफल हो जाएंगे. हालांकि ये अलग बात है कि उन्होंने ऐसा कुछ किया नहीं. जॉर्ज फर्नांडिज भी उस वक्त इसी तरह के दावे किया करते थे जो बाद में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार में रक्षामंत्री भी बने. कोलकाता के अखबार टेलीग्राफ को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जल सिंह को एक स्विस बैंक के खाते की पूरी जानकारी दी है जिससे बोफोर्स घोटाले से जुड़ी सभी जानकारियां मिल सकती थी. आज दो दशक बाद भी किसी स्विस खाते को सामने नहीं लाया जा सका है.
जिस वक्त बोफोर्स घोटाला उजागर हुआ था उस वक्त प्रतिष्ठित कानूनविद राम जेठमलानी ने भ्रष्टाचार के मामलों की जांच में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उस दौरान उनका हर दिन राजीव गांधी से दस सवाल पूछने का तरीका बहुत मशहूर हुआ था. लेकिन वाजपेयी की सरकार बनने के बाद कुछ समय के लिए कानून मंत्री रहे राम जेठमलानी के समय में भी बोफोर्स मामले की जांच घिसट-घिसट कर ही चलती रही. एक चौंकाने वाली बात ये रही कि 2003 में जेठमलानी ने अचानक ही हिंदुजा भाइयों की पैरवी करने की घोषणा कर दी और वे उन्हें कानून के चंगुल से मुक्ति दिलाने में भी सफल रहे.
इस मामले में उल्लेखनीय भूमिका निभाने वालों में एक और नाम रहा अरुण जेटली का, लेकिन एक भाजपा नेता के रूप में नहीं बल्कि एक युवा वकील के रूप में. 1990 में वीपी सिंह द्वारा उन्हें एडिशनल सॉलिसिटर जनरल नियुक्त करने के बाद उन्होंने बेहद आक्रामक ढंग से इस मामले को आगे बढ़ाया. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से वाजपेयी सरकार में कानून मंत्री रहते हुए वो कभी भी उस गति को हासिल नहीं कर पाए जैसी 1990 में दिखी थी. बावजूद इसके इसी साल अप्रैल में उन्होंने दावा किया कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वो बोफोर्स मामले में सीबीआई की असफलताओं की जांच के लिए आयोग गठित करेंगे.
ये बयान उस वक्त आया जब सीबीआई ने क्वात्रोकी को अपनी वांछितों की सूची से बाहर निकाल दिया था और इंटरपोल ने उसके खिलाफ जारी हुआ 12 साल पुराना रेड कॉर्नर नोटिस भी वापस ले लिया था. संक्षेप में कहें तो राजनीतिक दांवपेंच में फंस कर ये मामला सालों तक लटकता रहा. सरकार के इरादों पर संदेह करने की कई वजहे हैं मसलन उसने क्वात्रोकी के लंदन स्थित बैंक खातों को फिर से खोलने की छूट दे दी, पहले मलेशिया और फिर अर्जेंटीना से उसका प्रत्यर्पण करवाने में नाकाम रही, जहां उसे इंटरपोल के नोटिस के आधार पर गिरफ्तार किया गया था और अब उसने क्वात्रोकी के खिलाफ सारे आरोप वापस लेने का निर्णय कर लिया.
सवाल उठता है कि वाजपेयी सरकार ने इस मामले की सच्चाई सामने लाने की क्या कोशिशें की? वाजपेयी की मलेशियाई प्रधानमंत्री के साथ एक मुलाकात से जुड़ी बेहद दिलचस्प कहानी राजनीतिक हल्कों में सुनी-सुनाई जाती है. उस वक्त क्वात्रोकी कुआलालंपुर में रहता था और उसने मलेशिया की सुप्रीम कोर्ट में अपने प्रत्यर्पण के खिलाफ अर्जी लगा रखी थी. जब मोहम्मद ने वाजपेयी से क्वात्रोकी के प्रत्यर्पण के संबंध में भारत की गंभीरता के बारे में पूछा तो बैठक में मौजूद एक अधिकारी के मुताबिक प्रधानमंत्री खिड़की से बाहर देखते रहे थे.
ऐसा ही एक नाटक पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर के फार्महाउस पर उस दिन सुबह देखने को मिला जब वो प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे चुके थे. गुस्साए चंद्रशेखर अपने फार्महाउस के देहाती माहौल में बैठे हुए थे, घोटाले में फंसे एक व्यापारिक घराने के कुछ सदस्य घंटों से उनके पैर दबाए जा रहे थे. उस वक्त वहां मौजूद एक व्यक्ति के मुताबिक- ‘वो नहीं चाहते थे कि नेताजी (चंद्रशेखर) बोफोर्स की फाइलों में उनके खिलाफ कुछ लिखें.’
एक पल के लिए ऐसा लग सकता है कि क्वात्रोकी के खिलाफ आरोप वापस लेने के फैसले के बाद बोफोर्स मामला खत्म हो चुका है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट को सीबीआई की याचिका पर निर्णय देना अभी बाकी है और तब तक सोनिया गांधी के इतालवी मित्र ठीक से राहत की सांस नहीं ले सकते. हैरत की बात ये है कि कांग्रेस की धुर विरोधी राजनीतिक पार्टियां जिनमें भाजपा भी शामिल है, सीबीआई के फैसले पर ज्यादा कुछ नहीं बोल रहीं हैं. ढेरों संदिग्ध चरित्रों, आपराधिक मामलों और ऑफ द रिकॉर्ड कहानियों की घालमेल के बीच देश के सबसे बड़े मामलों में से एक की गुत्थी अभी उलझी ही पड़ी है.
[साभार- तहलका हिंदी]