एक विकसित देश के रूप में भारत के उदय में मैं भ्रष्टाचार को सबसे बड़ी बाधा समझता हूं। अब तो देश के सर्वोच्च और अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखे जाने वाले संस्थान भी इसकी लपेट में आ चुके हैं। सन् 2001 में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.पी. भरूचा ने आजिज आकर वक्तव्य दिया था कि न्यायालयों के 20 प्रतिशत न्यायाधीश भ्रष्ट हो चुके हैं। अब जब हमारी न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार की यह हालत है तो प्रशासन का क्या पूछना। प्रशासन में भ्रष्टाचार का फैलाव तो अत्यंत भयावह स्थिति में पहुंच चुका है। इस सन्दर्भ में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी का वक्तव्य सभी को याद होगा। उन्होंने कहा था कि गरीबी उन्मूलन परियोजनाओं को केन्द्र द्वारा दिए जाने वाले प्रत्येक सौ करौड़ रुपए में मात्र 15 करोड़ रुपए ही मूल परियोजना में खर्च हो पाते हैं। शेष राशि बीच के सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े भ्रष्ट लोग खा जाते हैं।
लेकिन क्या भ्रष्टाचार केवल हमारी राजनीति और प्रशासनिक व्यवस्था में ही व्याप्त है? मेरा अनुभव कहता है, नहीं। इनके बाहर जो हमारे व्यावसायिक समूह है, उनमें भी भ्रष्टाचार के अनेक उदाहरण हमने देखे हैं। हर्षद मेहता, केतन पारीख से जुड़े स्कैण्डल किसकी देन हैं? कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि मानो भ्रष्टाचार हम भारतीयों के मन में एक स्वीकृत परिदृश्य बनकर गहरी पैठ कर चुका है। शायद ही जीवन का कोई क्षेत्र इसकी पकड़ से बाहर हो।
भ्रष्टाचार केवल नैतिकता पर प्रश्न नहीं है बल्कि यह भारत जैसे गरीब किन्तु विकासशील देश की आर्थिक उन्नति में सबसे बड़ी बाधा है। बहुत सारे अर्थशास्त्री मानते हैं कि भ्रष्टाचार की जड़ में हमारे राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी हैं। अधिकांश बड़ी-बड़ी परियोजनाएं इन्हीं लोगों के दिमाग की उपज होती हैं। जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण के नाम पर बनने वाली परियोजनाओं में जबर्दस्त भ्रष्टाचार होता है। नकली दवाएं, विद्यालयों की जर्जर इमारतें, अयोग्य अध्यापक और स्तरहीन भोजन-व्यवस्था देकर आखिर किस तरह गरीबों का, इस देश का भला किया जा सकता है? शायद इसीलिए प्रख्यात अर्थशास्त्री विमल जालान का यह कहना उपयुक्त है कि भ्रष्टाचार पहले से ही गैर-बराबरी वाले समाज में असमानता को बढ़ाता है।
भ्रष्टाचार का प्रभाव हमारे उद्यमों पर भी होता ही है। मध्यम श्रेणी के, लघु श्रेणी के उद्योग जहां इससे प्रभावित होते हैं, वहीं बड़े औद्योगिक समूह भ्रष्टाचार के द्वारा बाजार में अपना एकाधिकार और वर्चस्व कायम करने की होड़ करते हैं।
अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भ्रष्टाचार जहां हमारी प्रगति, उत्पादकता को नुकसान पहुंचाता है, वहीं इससे निवेश भी हतोत्साहित होता है, आर्थिक हानि के साथ लोगों का व्यवस्था पर से विश्वास टूटता है। यदि हमारे देश में भ्रष्टाचार पर शुरू में ही लगाम लगाई जाती, तो सम्भवत: 80-90 के दशक में ही हमने 8 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर प्राप्त कर ली होती, जो आज 6.1 प्रतिशत तक ही पहुंच सकी है।
आज लोग निराश हैं, सोचते हैं भ्रष्टाचार अब खत्म नहीं हो सकता, पर मैं उनमें नहीं हूं। मुझे भारत के उज्ज्वल भविष्य में पूरी आस्था है। भ्रष्टाचार समाप्त करना है तो पहल उन लोगों से शुरू होनी चाहिए जो ऊंचे स्थानों पर बैठे हैं, जिन पर समाज ने, देश ने अपनी देखभाल का दायित्व सौंपा है। हमारे राजनेताओं, प्रशासकों और उद्यमियों को मिल-जुलकर इस मुसीबत से पार पाना है। सबसे पहले हमें प्रेरक, नि:स्वार्थ और साहसी नेतृत्व चाहिए। सच्चाई, पारदर्शिता और दायित्व निर्वहन के द्वारा नेतृत्व सरकार और समाज में आत्मविश्वास पैदा करता है। दुर्भाग्यवश, आज यह स्थिति नहीं है। जरूरत इस बात की है कि हम भ्रष्टाचारी को त्वरित ढंग से दण्ड देने की व्यवस्था करें। ऐसा वातावरण बने कि अभी भी ईमानदारी की कद्र है और ऐसा करने के लिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उदाहरण चाहिए। भ्रष्टाचार में आरोपित व्यक्ति, चाहे कोई भी क्यों न हो, उसे किसी दायित्व पर तब तक नहीं रखा जाना चाहिए जब तक कि वह खुद को निर्दोष साबित न कर ले। त्वरित और कड़ी कार्रवाई होनी ही चाहिए। यदि ऊंचे पदों पर बैठे गलत तत्वों पर कारवाई हो तो हम अपनी आने वाली पीढ़ी को एक संदेश दे सकेंगे। पर आज तो वातावरण ऐसा है कि भ्रष्टाचार को वैश्विक परिदृश्य का अंग बताकर इसे हमारे सामाजिक जीवन की अनिवार्यता सिद्ध किया जा रहा है। वस्तुत: हमारे राजनीतिक वर्ग और प्रशासनिक वर्ग के विरुद्ध जब भ्रष्टाचार के मामले में शिथिलता बरती जाती है, तो स्वभाविक ही समाज में संदेश चला जाता है कि ऊंचे बनने के लिए भ्रष्ट तरीके अपनाने मे कोई हर्ज नहीं है।
हमारे प्रशासनिक अधिकारी बड़ी संख्या में ईमानदार रहते हैं, लेकिन धीरे-धीरे भ्रष्टाचार के मकड़जाल में उलझ जाते हैं। कैसे उलझते हैं, इससे संबंधित एक घटना मुझे याद है। सन् 1980 के दशक के मध्य में एक बार मैं दिल्ली आया हुआ था। एक शाम को होटल अशोक के यात्री निवास में डिनर पर मेरी मुलाकात मेरे एक मित्र से हुई। केन्द्र सरकार के मंत्रालयों में उसकी गिनती एक ईमानदार और स्वच्छ चरित्र वाले आफिसर के रूप में थी। भोजन के समय मैंने उसे कुछ चिंतित पाया। बातचीत में उसने अपनी तकलीफ मुझे बताई। उसने बताया कि जीवन में पहली बार आज उसने एक केस में रिश्वत ली है और तब से ही एक प्रकार की बेचैनी मुझे परेशान किए है। मैंने कहा कि रिश्वत लेना तो गलत है, इसमें कोई संशय नहीं है। और तब उसने मुझे जो कहा, सुनकर मुझे धक्का लगा। उसने कहा कि मेरे विचारों का एक हिस्सा इस कार्य को उचित ठहराता है क्योंकि मैंने अपने मंत्री को रिश्वत लेते हुए देखा है। मैं अपने उस मित्र की मन:स्थिति समझ सकता था। मुझे वह कारण समझ में आ गया कि क्यों हमारे अच्छे-भले, उत्साही प्रशासनिक अधिकारी धीरे-धीरे इस मकड़जाल में उलझते जाते हैं। लेकिन मैं यह भी कहूंगा कि जिन्हें देश-समाज को दिशा देनी है, नेतृत्व देना है, वे इस प्रकार की उलझनों में नहीं फंसते। अनैतिकता को आखिर किस तर्क से नैतिकता का जामा पहनाया जा सकता है?
सिंगापुर में सन् 80 के दशक में एक घटना घटित हुई थी। भ्रष्टाचार के आरोप में घिरे एक मंत्री के विरुद्ध जांच में आरोप को प्रथम दृष्टया सही पाया गया। उस मंत्री ने प्रधानमंत्री से स्वयं को निर्दोष बताते हुए हस्तक्षेप की गुहार लगाई। प्रधानमंत्री ने उस मंत्री को स्पष्ट कहा कि आपका काम खत्म हो चुका है। इस मामले में कड़ी कार्रवाई होगी और अब आगे चुनाव लड़ने का ख्वाब देखना भी छोड़ दीजिए। अपने नेता की बात सुनकर वह मंत्री घर चला गया। अगले दिन समाचार पत्रों द्वारा पूरे सिंगापुर को खबर लगी कि उस मंत्री ने स्वयं ही सिर पर गोली मारकर आत्महत्या कर ली। तो यह है वह संदेश, जिससे भ्रष्टाचार रुकता है, रुक सकता है। भ्रष्टाचारी व्यक्ति को कदापि कहीं से भी संरक्षण नहीं मिलना चाहिए।
हमारे कार्यों में पारदर्शिता झलकनी चाहिए। भ्रष्टाचार समाप्त करने का एक तरीका यह भी है कि हम अपने चुनाव में खर्च होने वाले धन पर भी नियंत्रण करें। इस बारे में हम जर्मनी का उदाहरण ले सकते है। वहां प्रत्येक प्रत्याशी पर खर्च होने वाले धन के बारे में जनता को जानकारी दी जाती है कि इतना पैसा प्रत्याशी ने कहां से जुटाया। हमें इसी के साथ ऐसा तंत्र भी विकसित करना पड़ेगा जो धन के अतिगमन पर न केवल नजर रखे वरन् जरूरत पड़ने पर तत्काल कार्रवाई भी कर सके। इस सन्दर्भ में चुनाव आयोग को और शक्तिसम्पन्न किया जाना चाहिए। प्रत्येक प्रत्याशी के अनाधिकृत और भ्रष्ट कार्यों को व्यापक रूप में प्रकाशित कर जनता को उससे अवगत कराना आवश्यक है। इस संदर्भ में त्रिलोचन शास्त्री और उनके सहयोगियों के चलते उठाए गए कदम का पूरे देश में अच्छा संदेश गया है।
प्रशासनिक भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए ऐसे बहुत से कार्यों को, उपायों को तलाशने की जरूरत है, जिनमें सरकार की कोई भूमिका नहीं है। जैसे जब सरकार ने कम्प्यूटरों का आयात करने के लिए लाइसेंस की अनिवार्यता समाप्त कर दी, इलेक्ट्रॉनिक विभाग में फैला भष्टाचार एक ही झटके में समाप्त हो गया। सरकार की प्रवृत्ति कुछ ऐसी हो गई है कि वह जितनी नई योजनाएं बनाती है, प्रत्येक में सरकारी स्वीकृति प्राप्त करने के लिए व्यवसायियों को भारी कशमकश का सामना करना पड़ता है। हमें प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्टाचार की छोटी से छोटी संभावना का ध्यान रखकर उसे मिटाने के उपाय करने होंगे।
भ्रष्टाचार को दूर करने का एक बड़ा उपाय हमें ई-गवर्नेंस के रूप में मिल गया है। ई-गवर्नेंस ने निर्णय प्रक्रिया और निर्णय के क्रियान्वयन को भी अत्यंत आसान कर दिया है। हमें अपनी निर्णय-प्रक्रिया में अधिकाधिक पारदर्शिता रखनी होगी और इस कार्य में यदि हम साफ्टवेयर का इस्तेमाल सहज क्रियाशीलता के साथ प्रत्येक महत्वपूर्ण निर्णय-प्रक्रिया में करते हैं तो मैं मानता हूं कि इससे सरकारी कार्यों और निर्णयों में पर्याप्त चुस्ती आएगी और भ्रष्टाचार की सम्भावनाएं भी समाप्त हो जाएंगी। ई-गवर्नेंस न केवल सेवाओं को सहज-सुलभ बनाता है बल्कि इससे यह पता लगाना भी आसान है कि कहां पर निर्णय या उसके क्रियान्वयन में देरी हो रही है।
हैदराबाद के ई-सेवा केन्द्रों ने साधारण जनता की कठिनाइयों को जिस तरह दूर किया है, वह इस सन्दर्भ में एक प्रेरक उदाहरण है। सरकारी कार्यों से इसके चलते भ्रष्टाचार भी समाप्त हुआ है। सरकार की उपयोगी सेवाओं, विविध प्रमाण पत्रों, सरकारी अभिलेखों, अनुपत्रों, और तो और प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ.आई.आर.) के लिए देय शुल्क का भुगतान भी अब इसी माध्यम से होने लगा है।
आज हमें उत्तरदायी प्रशासन चाहिए। सरकारी कार्यों में गलती, लापरवाही और भ्रष्टाचार करने वालों के विरुद्ध त्वरित कार्रवाई होनी चाहिए। दुर्भाग्यवश हमारे देश के अधिकांश लोकायुक्त असफल हो चुके हैं, क्योंकि एक तो उन्हें सरकार के अन्तर्गत कार्य करना पड़ता है, दूसरे उनके कार्मिकों की गुणवत्ता भी बेहतर नहीं है। हमें अब एक अलग ज्यूरी खड़ी करनी होगी जो न्यायिक शक्तियों के साथ हमारी न्याय व्यवस्था के अंग के रूप में सिर्फ भ्रष्टाचार के मामलों से निपटने के लिए त्वरित रूप में काम करे। इन्हें प्रशासकों और सरकारों के अन्तर्गत न रखकर केवल संसद के प्रति उत्तरदायी बनाना होगा। साथ ही, ज्यूरी द्वारा निर्णीत मामलों में उच्च स्तर पर सुनवाई का अवसर भी निषिद्ध करना होगा।
मैं कहना चाहूंगा कि केन्द्रीय जांच ब्यूरो भी इस संदर्भ में अपने हाथ में लिए गए मामलों मे जिस तत्परता से कार्रवाई करनी चाहिए, उसमें सफल नहीं हुआ है। केन्द्रीय जांच ब्यूरो के वर्तमान ढांचे में परिवर्तन कर उसमें तेज-तर्रार अफसरों की नियुक्ति की जानी चाहिए। केन्द्रीय जांच ब्यूरो को किसी केस के बारे में प्राथमिक तथ्यों का अन्वेषण बारीकी से करके उस पर आगे कदम बढ़ाना चाहिए।
देश के औद्योगिक जगत, उद्यमी समूहों पर भी भ्रष्टाचार खत्म करने का दायित्व है। इन्फोसिस कम्पनी में हमने मूल्यों के क्षरण को रोकने के लिए इसी सन्दर्भ में एक कदम उठाया था। हमारे एक वरिष्ठ सहयोगी ने जब हमारी मूल्य-परंपरा के विपरीत काम किया तो हमें निर्णय लेने में मात्र कुछ घण्टे लगे और उनका त्यागपत्र ले लिया गया। आज देश को दृढ़ निश्चयी और सुयोग्य नेतृत्व जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में चाहिए। ऐसे लोग हैं भी, बस जनता में विश्वास और कुछ करने का वातावरण बन जाए, तो हम सब कुछ ठीक कर लेंगे।[साभार भारतीय पक्ष]
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