सन् १९८७ में यह बात सामने आयी थी कि स्वीडन की हथियार कंपनी बोफोर्स ने भारतीय सेना को तोपें सप्लाई करने का सौदा हथियाने के लिये 80 लाख डालर की दलाली चुकायी थी। उस समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी, जिसके प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। स्वीडन की रेडियो ने सबसे पहले 1987 में इसका खुलासा किया। इसे ही बोफोर्स घोटाला या बोफोर्स काण्ड के नाम से जाना जाता है।आरोप था कि राजीव गांधी परिवार के नजदीकी बताये जाने वाले इतालवी व्यापारी ओत्तावियो क्वात्रोक्की ने इस मामले में बिचौलिये की भूमिका अदा की, जिसके बदले में उसे दलाली की रकम का बड़ा हिस्सा मिला। कुल चार सौ बोफोर्स तोपों की खरीद का सौदा 1.3 अरब डालर का था। आरोप है कि स्वीडन की हथियार कंपनी बोफोर्स ने भारत के साथ सौदे के लिए 1.42 करोड़ डालर की रिश्वत बांटी थी।
इतिहास
काफी समय तक राजीव गांधी का नाम भी इस मामले के अभियुक्तों की सूची में शामिल रहा लेकिन उनकी मौत के बाद नाम फाइल से हटा दिया गया। सीबीआई को इस मामले की जांच सौंपी गयी लेकिन सरकारें बदलने पर सीबीआई की जांच की दिशा भी लगातार बदलती रही। एक दौर था, जब जोगिन्दर सिंह सीबीआई चीफ थे तो एजेंसी स्वीडन से महत्वपूर्ण दस्तावेज लाने में सफल हो गयी थी। जोगिन्दर सिंह ने तब दावा किया था कि केस सुलझा लिया गया है। बस, देरी है तो क्वात्रोक्की को प्रत्यर्पण कर भारत लाकर अदालत में पेश करने की। उनके हटने के बाद सीबीआई की चाल ही बदल गयी। इस बीच कई ऐसे दांवपेंच खेले गये कि क्वात्रोक्की को राहत मिलती गयी। दिल्ली की एक अदालत ने हिंदुजा बंधुओं को रिहा किया तो सीबीआई ने लंदन की अदालत से कह दिया कि क्वात्रोक्की के खिलाफ कोई सबूत ही नहीं हैं। अदालत ने क्वात्रोक्की के सील खातों को खोलने के आदेश जारी कर दिये। नतीजतन क्वात्रोक्की ने रातों-रात उन खातों से पैसा निकाल लिया।
2007 में रेड कार्नर नोटिस के बल पर ही क्वात्रोक्की को अर्जेन्टिना पुलिस ने गिरफ्तार किया। वह बीस-पच्चीस दिन तक पुलिस की हिरासत में रहा। सीबीआई ने काफी समय बाद इसका खुलासा किया। सीबीआई ने उसके प्रत्यर्पण के लिए वहां की कोर्ट में काफी देर से अर्जी दाखिल की। तकनीकी आधार पर उस अर्जी को खारिज कर दिया गया, लेकिन सीबीआई ने उसके खिलाफ वहां की ऊंची अदालत में जाना मुनासिब नहीं समझा। नतीजतन क्वात्रोक्की जमानत पर रिहा होकर अपने देश इटली चला गया। पिछले बारह साल से वह इंटरपोल के रेड कार्नर नोटिस की सूची में है। सीबीआई अगर उसका नाम इस सूची से हटाने की अपील करने जा रही है तो इसका सीधा सा मतलब यही है कि कानून मंत्रालय, अटार्नी जनरल और सीबीआई क्वात्रोक्की को बोफोर्स मामले में दलाली खाने के मामले में क्लीन चिट देने जा रही है।
यह ऐसा मसला है, जिस पर 1989 में राजीव गांधी की सरकार चली गयी थी। विश्वनाथ प्रताप सिंह हीरो के तौर पर उभरे थे। यह अलग बात है कि उनकी सरकार भी बोफोर्स दलाली का सच सामने लाने में विफल रही थी। बाद में भी समय-समय पर यह मुद्दा देश में राजनीतिक तूफान लाता रहा। इस प्रकरण के सामने-आते ही जिस तरह की राजनीतिक हलचल शुरू हुई, उससे साफ है कि बोफोर्स दलाली आज भी भारत में बड़ा राजनीतिक मुद्दा है।
असली सूत्रधारों से कितनी पूछताछ
[आलोक मेहता]
मालवा में एक कहावत है- 'बगल में छोरा (बच्चा), गाँव में ढिंढोरा।' बोफोर्स तोप खरीदी कमीशन कांड में भी ऐसा ही हो रहा है। लगभग 20 वर्षों से कुछ राजनीतिक पार्टियाँ चुनाव के आसपास बोफोर्स कांड के जिन्न के साथ तूफान लाने की कोशिश करती हैं।
निश्चित रूप से कांड के मुख्य आरोपी ओटावियो क्वात्रोच्चि और अन्य लोगों को प्रमाण होने पर कठोरतम कानूनी कार्रवाई कर दंडित किया जाना चाहिए। लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि क्वात्रोच्चि को कानूनी तरीके से भारत लाकर दंडित करवाने की माँग करने वाली भाजपा के नेता अपने घर (स्वदेश) में बैठे बोफोर्स कांड के असली सूत्रधार को कठघरे में खड़ा करवाकर बोफोर्स खरीदी में कमीशन का विवरण नहीं उगलवा रहे हैं। यह सूत्रधार पहले राजीव राज में सत्ता की नाक का बाल रहा, फिर बोफोर्स कांड उछालने वाले वीपी सिंह का प्रमुख दरबारी हुआ और बाद में भाजपा की शरण में सत्ता की गोटियाँ बिछाता रहा।
एक पत्रकार के नाते बोफोर्स सौदे के वर्ष 1986 से आज तक कुछ घटनाओं, पर्दे के पीछे की गतिविधियों और संबंधित व्यक्तियों से मुलाकातों का चश्मदीद गवाह मैं स्वयं रहा हूँ। यों मैगसेसे अवॉर्ड या राजनीतिक सत्ता से सीधे न जुड़े होने के बावजूद मेरे जैसे कुछ पत्रकार दिल्ली में हैं, जो बोफोर्स सौदे की गहराई को समझते हुए समय-समय पर लिखते-पढ़ते रहे हैं।
इसीलिए कम से कम मैं यह दावा भी कर सकता हूँ कि जनवरी 1986 के तीसरे सप्ताह में जब स्वीडिश प्रधानमंत्री ओलोफ पामे भारत आए थे, तब 19 जनवरी 86 की शाम दिल्ली के मौर्या होटल में लगभग 30 मिनट मेरी भी मुलाकात हुई थी। पामे की यह राजकीय यात्रा नहीं थी। बोफोर्स तोप सौदा उस समय पक रहा था।
सौदे पर प्रारंभिक बातचीत के लिए स्वीडन के विदेश व्यापार सचिव कार्ल जोहेन ओवेर्ग भारत की यात्रा कर चुके थे। पामे ने अपनी गैर राजकीय यात्रा का उद्देश्य विश्व के 6 प्रमुख देशों द्वारा अंतरराष्ट्रीय पहल के लिए भारत का सहयोग लेना बताया था। इसीलिए मुझसे बातचीत भी निरस्त्रीकरण, विश्व में अमेरिकी दादागिरी, पाक व भारत स्वीडन के आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर केंद्रित रही। मेरी जानकारी के अनुसार इस यात्रा के दौरान स्वीडिश प्रधानमंत्री ने केवल मुझे इंटरव्यू दिया था और तब 21 जनवरी 86 को नवभारत टाइम्स में छपा था।
बहरहाल, इस मुलाकात के लिए मौर्या होटल में लगभग डेढ़-दो घंटे बिताने का अवसर मुझे मिला और मैंने स्वयं देखा कि कौन प्रमुख लोग स्वीडिश प्रधानमंत्री से मिले। मिलने वालों में राजीव गाँधी मंत्रिमंडल के सहयोगी भी थे, जो परिवार के भी निकटस्थ व्यक्ति माने जाते थे। बाद में उन्होंने मुझे बताया था कि सौदे में कमीशन का पूरा लेखा-जोखा उनके पास है।
बोफोर्स कांड को लेकर पिछले 23 वर्षों की गतिविधियों के जानकारों से इस बात की पुष्टि हो सकती है कि यही व्यक्ति पर्दे के पीछे सौदे में भावताव करता रहा। घटनाक्रम तेजी से बदले। लगभग एक माह बाद ही 28 फरवरी 1986 को ओलोफ पामे की हत्या हो गई। कुछ समय बाद बोफोर्स तोप का सौदा भी हो गया। इसके बाद राजीव गाँधी के करीबी सदस्य ने भी अपनी दाल अधिक न गलने पर उनका साथ छोड़ दिया और कुख्यात तांत्रिक चंद्रास्वामी तथा विश्वनाथप्रताप सिंह के विद्रोही खेमे में शामिल हो गए।
चंद्रास्वामी के हथियारों के सौदागरों से रिश्ते सबको मालूम थे। इस पूरी लॉबी ने राजीव गाँधी को ही सत्ता से हटवा दिया। राजीव परिवार के उसी सदस्य ने वीपी सिंह के पतन के बाद भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया और चुनावी उम्मीदवार बना, लेकिन बुरी तरह पराजित हुआ। भाजपा गठबंधन के सत्ता में आने पर उसे कुछ लाभ नहीं मिला।
अब सवाल यह उठता है कि 1998 से 2004 तक भाजपा गठबंधन की सरकार रहने पर बोफोर्स के भारत स्थित असली सूत्रधारों से कितनी पूछताछ हुई? क्या कभी ऐसे सूत्रधारों द्वारा 1984 से 1999 तक हुई वैध-अवैध कमाई, अपार संपत्ति, फार्म हाउस इत्यादि की जाँच-पड़ताल करवाई गई? यों 1996 के बाद तो कुछ समय कम्युनिस्ट नेता भी सरकार में आए, लेकिन क्या उन्होंने बोफोर्स घोटाले से जुड़े भारतीयों पर कोई कार्रवाई की? गैरकांगे्रसी राज में सीबीआई का बहुत कायाकल्प हुआ। फिर उस समय क्वात्रोच्चि सहित संदिग्ध लोगों के विरुद्ध कितनी त्वरित कार्रवाई हुई?
बोफोर्स कांड के राजनीतिक तूफान के साथ एक अहम सवाल यह भी उठता है कि भारत के चुनावों पर कहीं हथियारों की खरीद-फरोख्त के अंतरराष्ट्रीय सौदागरों, दलालों तथा देशों की छाया तो नहीं रहती है? यह तथ्य दुनिया जानती है कि हथियारों के अंतरराष्ट्रीय धंधे में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, स्वीडन और इसराइल जैसे देश अग्रणी हैं। एशिया में भारत सबसे बड़ा खरीददार है। अमेरिका की अर्थव्यवस्था तो बहुत कुछ हथियारों के कारखानों और व्यापार पर निर्भर है। उसे योरपीय देशों से बड़ी प्रतियोगिता करना पड़ती है।
भारत पहले रक्षा क्षेत्र में रूस के साथ अधिकाधिक जुड़ा हुआ था। स्वीडन भी सोशलिस्ट नेता ओलोफ पामे के कारण भारत से गहरा जुड़ा। फ्रांस ने मुसीबतों में साथ दिया, लेकिन सच यह है कि अंतरराष्ट्रीय सौदागरों की इच्छा यही रहती है कि भारत में उनके अनुकूल लोग सत्ता में आएँ।
तो क्या यही वजह है कि पिछले 20 वर्षों से चुनाव के दौरान हथियारों से जुड़े घोटालों की गूँज अधिक होती है और चुनाव संपन्ना होने के बाद क्या सत्ताधारी, सौदागर और दलाल अपने असली धंधे में लग जाते हैं?
[ साभार वेबदुनिया]
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